– एक हाथ में कुरान-दूसरे हाथ में कंप्यूटर की नीति भ्रामक और ख़तरनाक है
– मदरसों को पैसे देना कसाई के हाथ में छुरी ख़रीदकर देने जैसा है
– मासूमों के दिलोदिमाग़ में नफ़रत का ज़हर भरा जाता है मदरसों में
– मदरसों में ही मोमिन और क़ाफ़िर के बीच दीवार ऊंची होती है
– समाज और देश की मुख्यधारा से कट जाते हैं मदरसों में पढ़ने वाले छात्र
लाशों के ढेर पर राजनीति तो हो सकती है, लोगों को बेवकूफ़ बनाकर चुनाव भी जीते जा सकते हैं मगर, आतंकवाद के सच को दफ़न नहीं किया जा सकता.पूरी दुनिया जानती है कि मदरसा शिक्षा पद्धति मूल रूप में मज़हब पर आधारित है और यहां दी जाने वाली तालीम में अपनी मान्यताओं को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे मज़हब के लोगों को क़ाफ़िर-क़ुफ्र घोषित करना निहित है.इस सोच के अनुसार काफ़िरों-मुशरिकों के पास दो ही विकल्प होते हैं- या तो वे इस्लाम क़बूल कर लें या फिर मरने को तैयार हो जाएं.साथ ही, दुनिया को दारूल-इस्लाम बनाने की राह में जिहाद करने यानि जगह-जगह तबाही फ़ैलाने के लिए युवाओं को उकसाया जाता है.दिलोदिमाग़ में नफ़रत का ज़हर इस क़दर भर दिया जाता है कि मासूम और नरम दिल छात्र भी बदलकर ‘लोन वुल्फ’ या फिदायीन बन जाता है.ऐसे में, ज़रूरी है सीधे समस्या की जड़ पर प्रहार.विनाश के प्रेरणास्रोत मदरसों को बंद किए बिना सेक्युलरिज्म और सामाजिक सौहार्द की बातें बेमानी हैं.
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मदरसा और राजनेता |
‘भारत तेरे टुकड़े होंगें इंशाल्लाह इंशाल्लाह’, ‘हिन्दुओं की क़ब्र खुदेगी एएमयू की धरती पर’, ‘भारत से असम को काट दो’ आदि नारे या ऐलान के तार सभी छोटे या बड़े मदरसों से ही तो जुड़े हुए हैं.इन्हें धमकी कहें, तो भारत में लाल क़िला गोलीकांड, संसद पर हमला, मुंबई हमला, कश्मीर में हमलों और विदेशों में न्यूयॉर्क, लंदन, मैनचेस्टर, पेरिस, नीस, काबुल, लाहौर, ढाका आदि शहरों में हुई आतंकी घटनाएं व्यावहारिक रूप हैं/थीं.ये (लगभग सभी) भी तो मज़हबी जुनून और एक तरह के जहरीले चिंतन से ही प्रेरित रही हैं.
भारत में सीएए के विरोध के नाम पर या झूठी अफ़वाहों के बहाने दिल्ली और उत्तर-पूर्वी बैंगलोर शहर में हत्या, तोड़फोड़ और आगजनी करने वाले हों या न्यूयॉर्क के मैनहट्टन या फिर नीस, बर्लिन, लंदन, स्टॉकहोम, बार्सिलोना आदि शहरों में ट्रक द्वारा लोगों को कुचलने वाले सभी अल्लाहू अक़बर (यानि अल्लाह दूसरे धर्म-पंथों के ईश्वर से बड़ा और महान है) चिल्ला रहे थे.इस नारे को बुलंद करते हुए मासूमों को मारने के पीछे की मानसिकता को बल देने में मदरसों से मिलने वाली तालीम का बहुत बड़ा हाथ बताया गया.
ऐसे में, ये सवाल बड़ा लाज़िमी हो जाता है कि मदरसा आख़िर है क्या.आख़िर यहां ऐसा होता क्या है, जिससे छात्रों का सब कुछ बदल जाता है और वे सामान्य जीवन त्याग कर एक अलग ही परिवेश में पहुंच जाते हैं.शेष समाज और दुनिया से वे नफ़रत करने लगते हैं और उनके लिए मुसीबत का सबब बन जाते हैं.
मदरसा क्या है?
मदरसा
पारसी या फ़ारसी शब्द है, जो मूलतः संस्कृत के परम शब्द से बना है.इसका अर्थ होता है भाषण देना.अरबी में इसे मदरसाह उच्चारित किया जाता है और यह शैक्षिक संस्थान, यानि वह स्थान जहां पठन-पाठन होता है, के लिए इस्तेमाल होता है.अलग-अलग तरीक़े से लिप्यंतरित यह मदरसा, मेडरेसा, मदरज़ा, मेड्रेस आदि भी बोला जाता है.
मदरसों की शुरुआत के बारे में जानकार बताते हैं कि अब्बासियों (ख़िलाफ़त-ए-अब्बासिया) के दौर (750-1257 ईस्वी) में जब इस्लामी साहित्य (किताबें वगैरह) लिखे जा रहे थे तब उसके प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से शिक्षण केंद्र खोलने की ज़रूरत महसूस की गई.ऐसे में, द्विस्तरीय शिक्षण केन्द्रों में प्राथमिक शिक्षा वाले केंद्र को मकतब नाम दिया गया, जबकि माध्यमिक और उच्चस्तरीय शिक्षा वाले केंद्र मदरसे कहलाए.
बाद में मदरसों (मदारिस) का रूप व्यापक हो गया और यहीं पर हर स्तर की पढाई होने लगी, जो आज भी जारी है.
कालांतर में मदरसों की स्थापना रूस, मंगोलिया, चीन, भारत और मलेशिया जैसे देशों में हुई.ख़ासतौर से, भारत में मदरसा पद्धति सूफ़ी मुसलमानों की तरह मुस्लिम आक्रान्ताओं के साथ ही 11 वीं सदी में दाख़िल हुई.फिर, जैसे जैसे वे पैर पसारते गए, मदरसों का जाल भी यहां बिछता गया.
मदरसों में पढ़ाते क्या हैं?
मदरसों में प्राथमिक स्तर पर ख़ासतौर से, इस्लाम की बेसिक शिक्षा के तहत उपासना पद्धति की जानकारी दी जाती है.यानि कुरान की आयतें रटाई जाती हैं और इबादत (नमाज़ आदि) के तौर-तरीक़े सिखाए जाते हैं.इससे आगे माध्यमिक और उच्चस्तरीय शिक्षाओं में अरबी भाषा के ज्ञान के साथ मुंशी/मौलवी (दसवीं के बराबर पढ़ाई) से लेकर आलिम (बारहवीं के समकक्ष), क़ामिल (ग्रेज़ुएशन) और फ़ाज़िल (पोस्ट ग्रेजुएशन) तक पढ़ाये जाने वाले विषयों में मुख्य रूप से कुरान और हदीसें शामिल हैं.इनके अलावा कुरान के तर्जुमे, तफ़सीर, वजूहात, शान-ए-नुज़ूल, नौयियत, हाल, मिज़ाज़, मिल्लत आदि भी छात्र यहां अध्ययन करते हैं.
मगर इन तमाम पाठ (Text) या मज़हबी साहित्य में जो सबसे अहम होता है वह है नफ़रत का पाठ.यानि यहां दूसरी जातियों-धर्मों के लोगों से घृणा करने की शिक्षा दी जाती है.
दिलोदिमाग़ में नफ़रत का ज़हर भरा जाता है मदरसों में
मदरसों में मासूमों के दिलोदिमाग़ में दूसरी क़ौम के लोगों के प्रति नफ़रत का ज़हर घोला जाता हैं.उन्हें सिखाया-बताया जाता है कि ग़ैर-मुसलमान नीच हैं, नफ़रत के क़ाबिल हैं.
मदरसों के शिक्षक और उलेमा इसके लिए कुरान की आयतों का हवाला देते हैं.
कुरान की आयतों में भी बाक़ायदा इसका ज़िक्र है.सूरह अल-बय्यिनाह की आयत संख्या 6 (सूरह 98:6) में कहा गया है-
” बेशक़, जिन लोगों ने (अल्लाह और उसके रसूल को) इनकार किया, चाहे वे किताब के लोगों (अहले किताब) में से हों या बहुदेववादी (मुशरिक), वे जहन्नम की आग में होंगें, सदा वही रहेंगें.वे सबसे बुरे जीव हैं. ”
यानि अहले किताब (यहूदी और ईसाई, जिन्हें, इस्लामी मान्यता के अनुसार, पवित्र कुरान से पहले अल्लाह की ओर से तोरात और इंजील नामक पवित्र किताबें मिली थीं मगर, इनमें छेड़छाड़ कर उन्होंने इन्हें भ्रष्ट या अपवित्र कर दिया) और बहुदेववादी (विभिन्न देवी-देवताओं को पूजने वाले, मूर्तिपूजक, मुशरिक जिनमें हिन्दू, जैन, सिख, बौद्ध आदि सभी आ जाते हैं), दोनों ही (दोनों तरह के लोग) काफ़िर हैं, क्योंकि वे अल्लाह और उसके रसूल को नहीं मानते.ये सब मख्लूक़ (जीवों) से बदतर (नीच) हैं.
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सूरह अल-बय्यिनाह की आयत संख्या 6 (स्क्रीनशॉट) |
ऐसे में, ‘तुम्हारा दीन तुम्हारे पास, हमारा दीन हमारे पास’ वाला जुमला एक भद्दा मज़ाक ही तो है.
बेहतर-बदतर इंसान के इस प्रकरण में आज़ादी की लड़ाई के दिनों में
गांधी जी को लेकर तत्कालीन मशहूर व कद्दावर कांग्रेसी नेता
मुहम्मद अली जौहर द्वारा की गई एक टिप्पणी उद्धृत करने योग्य है.उन्होंने कहा था-
” मेरा मज़हब यह सिखाता है कि बदतरीन से बदतरीन (अत्यंत गिरा हुआ, नीच) मुसलमान भी मेरे लिए मिस्टर गांधी (महात्मा गांधी) से बेहतर है. ”
बहरहाल, काफ़िरों-मुशरिकों (काफिरीन-मुशरिकीन) को न सिर्फ़ सभी मख्लूक़ से बदतर बताया गया है, बल्कि उन्हें मार डालने का भी हुक्म है.
सूरह अल-अनफ़ाल की आयत संख्या 12 (सूरा 8:12) में इस तरह कहा गया है-
” याद रखो, ऐ नबी! जब तुम्हारे अल्लाह ने फ़रिश्तों को बताया, ‘मैं तुम्हारे साथ हूं.इसलिए ईमान वालों (मुसलमानों) को पक्का कर दो/तैयार करो.मैं काफ़िरों के दिलों में दहशत भर दूंगा.तो (ऐ मुसलमानों) उनकी गर्दन पर और उनकी उंगलियों (पोर-पोर) पर वार करो/आघात पहुंचाओ. ”
ग़ौरतलब है कि यहां काफ़िरों के बदन के ख़ास हिस्सों पर आघात करने की बात हो रही है.इस प्रकार के आघात/चोट से मौत निश्चित होती है.
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सूरह अल-अनफ़ाल की आयत संख्या 12 (स्क्रीनशॉट) |
सूरह अत-तौबा की आयत संख्या 5 (सूरह 9:5) में कहा गया है-
” लेकिन, पवित्र महीने (रमज़ान) बीत जाने के बाद, उन बहुदेवादियों (अलग-अलग देवी-देवताओं को पूजने वालों, मुशरिकीन), जिन्होंने संधियों को तोड़ा है, जहां कहीं भी मिलें, उन्हें मार डालो, उन्हें पकड़ो, घेरो, और हर तरह से उनके इंतज़ार में/घात में झूठ बोलो.लेकिन, अगर वे तौबा कर लें, नमाज़ अदा करें और कर (जज़िया) दें, तो उन्हें बख्श दो.वास्तव में अल्लाह बड़ा क्षमाशील, बहुत दयावान है. ”
यहां बहुदेववादी यानि मुशरिक दुश्मन हैं और वाज़िब-उल-क़त्ल हैं, जिन्हें पकड़ने/दबोचने के लिए झूठ भी बोलने की इज़ाज़त है.शायद इसीलिए किसी ने कहा है कि प्यार और जंग में सब कुछ जायज़ है.
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सूरह अत-तौबा की आयत संख्या 5 (स्क्रीनशॉट) |
सूरह मुहम्मद की आयत संख्या 4 (सूरह 47:4) में कुछ इस तरह कहा गया है-
” जंग में जब तुम काफ़िरों से भिड़ो (काफ़िरों से जब तुम्हारा सामना हो), तो उनकी गर्दन उड़ाओ (सर तन से जुदा कर दो), यहां तक कि जब उन्हें कुचल दो, तो दबोच/जकड़ लो.फिर, जब वे हथियार डाल दें/जंग ख़त्म हो जाए, तो उन्हें या तो उपकार करके या फिर फ़िरौती (धन आदि) लेकर छोड़ दो.अल्लाह अगर चाहता, तो वह ‘ख़ुद’ उन्हें सज़ा दे सकता था.लेकिन, वह ‘यह सिर्फ़’ तुम में से कुछ को दूसरों के ज़रिए परखने के लिए करता है.और जो लोग अल्लाह की राह में शहीद हुए हैं, वह उनके कर्मों को कभी बेकार नहीं जाने देगा. ”
काफ़िरों से जंग करने, उन्हें मार डालने का आदेश है.जंग में कौन-कौन से तरीक़े अपनाने हैं, उनका भी ज़िक्र है.ख़ासतौर से, जो, काफ़िरों से लड़ते हुए मारे जाते हैं, उन्हें शहीद का दर्ज़ा दिया गया है.कहा गया है कि उनकी शहादत बेकार नहीं जाएगी, उन्हें सवाब मिलेगा.
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सूरह मुहम्मद की आयत संख्या 4 (स्क्रीनशॉट) |
काफ़िरों को लूटने का भी ज़िक्र मिलता है.
सूरह अल-अनफ़ाल की आयत संख्या 40-41 (सूरह 8:40-41) में कुछ इस तरह कहा गया है-
” और यदि वे मुंह फेरें (ना मानें), तो जान लें कि अल्लाह आपका रक्षक है.क्या ही उत्तम रक्षक और क्या ही उत्तम सहयक!
जान लो कि तुम जो कुछ भी लूटते हो, उसका पांचवां हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल, उसके क़रीबी रिश्तेदारों, अनाथों, ग़रीबों और ज़रूरतमंद यात्रियों के लिए है, अगर तुम अल्लाह पर विश्वास करते हो और उस निर्णायक पर हमने अपने दास पर क्या उतार दिया जिस दिन दो सेनाएं बद्र में भिड़ीं.और अल्लाह हर चीज़ में सबसे ज़्यादा सक्षम है. ”
काफ़िरों से लूट में हासिल माल (माल-ए-ग़नीमत) को आपस में बांटने का ज़िक्र है.इसके पांच हिस्सों में से चार हिस्से मुजाहिदों (लड़ाकों, जिहादियों ) के लिए, जबकि पांचवें हिस्से पर अल्लाह के रसूल (पैग़म्बर मुहम्मद) का अधिकार बताया गया है.
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सूरह अल-अनफ़ाल की आयत संख्या 40-41 (स्क्रीनशॉट) |
मदरसों में बताई-सिखाई जाने वाली कुछ ऐसी भी बातें व वर्णन हैं, जो काफ़िरों की महिलाओं का अपहरण करने के लिए उकसाते हैं.उन्हें सामान्य स्त्रियों से अलग समझा गया है.
सूरह अन-निसा की आयत संख्या 24 (सूरह 4:24) में कहा गया है-
” और शादीशुदा औरतें हराम हैं, सिवाय उनके जो तुम्हारी लौंडी (काफ़िरों की बहु-बेटियां, जो क़ब्ज़े में हैं, ग़ुलाम औरतें) हैं.यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया है.इनके अलावा, बाक़ी औरतें तुम्हारे लिये हलाल हैं कि तुम अपने माल (धन) के द्वारा उन्हें हासिल करो और उनकी पाकदामनी की हिफ़ाज़त के लिए, न कि यह काम स्वच्छंद काम-तृप्ति के लिए हो.फिर, उनसे शादीशुदा ज़िंदगी का आनन्द लो, तो उसके बदले उनका तय किया हुआ हक़ (मेहर की रक़म, उजरत) अदा करो और अगर हक़ तय हो जाने के बाद तुम आपसी रज़ामंदी से कोई समझौता कर लो, तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है.बेशक़, अल्लाह सब कुछ जानने वाला तत्वदर्शी है. ”
ग़ौरतलब है कि लौंडी कोई कामवाली बाई नहीं, बल्कि काफ़िरों-मुशरिकों की बहु-बेटियां हैं, जो जंग में हासिल हुई हैं, और माल-ए-ग़नीमत (लूट का माल) हैं.इनकी स्थिति आम औरतों यानि मोमिनात (मुस्लिम औरतें) से बिल्कुल अलग हैं.ये कुआंरी हों या शादीशुदा, हलाल हैं.ये ग़ुलाम हैं, और इनका किसी भी तरह से इस्तेमाल हो सकता है.
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सूरह अन-निसा की आयत संख्या 24 (स्क्रीनशॉट) |
जब काफ़िरों की बहु-बेटियां इस्तेमाल की जाने वाली चीज़ हैं, इनके साथ हर तरह का सलूक जायज़ है, तो हालात ही बिल्कुल अलग बन जाते हैं.एक तरह का लाइसेंस (मज़हबी अधिकार) मिल जाता है उन्हें हासिल करने/क़ब्ज़े में लेने का, चाहे वो लव जिहाद के तरीक़े से हो या ज़बरन उठाकर.इस सबकी प्रेरणा मदरसों से ही तो मिलती है.
मुख्यधारा से कट जाते हैं मदरसों में पढ़ने वाले छात्र
मदरसा शिक्षा प्रणाली की एक बड़ी ख़ामी यह भी है कि यहां के छात्रों का संपर्क आमतौर पर सिर्फ़ मुस्लिम बच्चों और मुस्लिम शिक्षकों के साथ ही होता है.शुरुआती परवरिश में ही बाहरी दुनिया से दूरी या कटाव उन्हें दूसरे समुदायों के तौर-तरीक़ों और जीवन-दर्शन से अनजान रखता है.अगर मुस्लिम बच्चे सिर्फ़ अपनी क़ौम के बच्चों और मौलवी के ही संपर्क या सोहबत में रहेंगें, तो कुदरती तौर पर उनका नज़रिया, पहनावा, भाषा, देश के इतिहास के बारे में ज्ञान और उद्देश्य भी बाक़ी समाज से अलग होंगें.यही दुराव प्रायः कई तरह के भ्रम पैदा करने में सहायक होती है.ऊपर से भेदभाव वाला मज़हबी ज्ञान अथवा नफ़रत का पाठ आग में घी का काम करता है.
मदरसों से पढ़कर निकले छात्र क्या बनना या करना चाहते हैं, यह पीएचडी (विद्या वाचस्पति) की पढ़ाई करने वाले छात्रों द्वारा किए गए एक शोध का डिजिटाइज़ेशन (अंकीकरण) करने वाली एक संस्था ‘शोध गंगा’ के आंकड़ों के मुताबिक़, मदरसों में पढने वाले सिर्फ़ दो फ़ीसदी छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, जबकि 42 फ़ीसदी छात्रों का उद्देश्य भविष्य में मज़हब का प्रचार करना होता है.
16 फ़ीसदी छात्र शिक्षक बनकर मज़हब की शिक्षा देना चाहते हैं, 8 फ़ीसदी छात्र इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, 30 फ़ीसदी छात्रों का मक़सद मदरसों से तालीम लेने के बाद अपने समाज यानि मुस्लिम समाज के लिए कार्य करना होता है, जबकि 2 फ़ीसदी छात्र भविष्य में धर्मगुरु बनना चाहते हैं.
तो ये हैं मदरसों में पढ़ने वाले छात्र.इनकी ज़िंदगी में चारों तरफ़ मज़हब ही मज़हब है, सिर्फ़ इस्लाम का प्रचार है.कोई इस्लाम का प्रचार करना चाहता है, कोई इस्लाम को पढ़ाना-बढ़ाना चाहता है, कोई इस्लाम की सेवा करना चाहता है.अब सोचिये, ऐसे में देश की सेवा कौन करेगा, बाक़ी समाज की चिंता कौन करेगा.इनमें कोई भी छात्र ऐसा है, जो मज़हब को बीच में लाए बिना, मज़हबी आधार पर बंटवारा किए बिना कोई कार्य कर सके?
एक हाथ में कुरान-दूसरे हाथ में कंप्यूटर की नीति भ्रामक और ख़तरनाक है
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखाओं से निकले, प्रखर राष्ट्रवादी का तमगा धारण किए कथित भगवा सरकार के मुखिया
नरेंद्र मोदी का मानना है कि विज्ञान और तकनीक
इस्लामी आतंकवाद पर भारी पड़ेगी.इसलिए वह देश के मुसलमानों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कप्यूटर देखना चाहते हैं.
ज्ञानी-ध्यानी और क्रांतिकारी प्रधानमंत्री समझे जाने वाले नरेंद्र मोदी के अनुसार, मदरसों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों की पढ़ाई के ज़रिए मज़हबी कट्टरता और आतंकवाद की बुराईयों को ख़त्म किया जा सकता है और उनमें समाज के प्रति संवेदनशीलता और राष्ट्र के प्रति निष्ठा का विकास भी किया जा सकता है.इससे देश में अमन-चैन का माहौल होगा और गंगा-जमुनी तहज़ीब भी स्थापित होगी.लेकिन, काश! कोई उनसे पूछता कि अगर हक़ीक़त में ऐसा होता, तो 2001 के 9/11 आतंकी हमले में कंप्यूटर-ज्ञान से लैस, फ़र्रांटेदार अंग्रेजी बोलने वाले, आधुनिक विषयों में ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट युवा क्यों शामिल हुए? सुपरपावर के दिलोदिमाग़ पर चोट पहुंचाने और अमिट छाप छोड़ने वाले इस हमले को अंजाम देने वाले अधिकतर हमलावर हवाई जहाज उड़ाने में माहिर थे, और उन्हें यह क़ाबिलियत आधुनिक शिक्षा की बदौलत ही हासिल हो सकी थी.ऐसे में, इनके (मदरसों के) सिलेबस (पाठ्यक्रम) को आधुनिक बनाने या उनमें कंप्यूटर शिक्षा शुरू करना उसी जिहादी प्रवृत्ति को और रशद-पानी देकर सशक्त करने जैसा है, जिसकी नींव ख़ुद दुनिया के तमाम मदरसों में तैयार होती है.
कंप्यूटर पर बददिमाग इंटरनेट खंगालेंगें और बम बनाना सीखेंगें.फिर, ईंट-पत्थर नहीं फेंकेंगें, सीधे बम बरसायेंगें.
सर तन से जुदा करने के लिए हरेक को रेतना होता है.इसमें चाकू-छुरी की ज़रूरत होती है, जबकि बम-बारूद से बड़ी आसानी से और चुटकियों में एकसाथ कईयों के चीथड़े उड़ाए जा सकते हैं/जाते हैं.
मदरसों को सुधारने के नाम पर अबतक जनता की गाढ़ी कमाई के सैकड़ों करोड़ रुपए फूंक डालने वाली मोदी सरकार को कोई यह नहीं बताता कि दुनिया का कोई बड़ा आतंकवादी-जिहादी ऐसा नहीं है/था, जो अशिक्षित हो, मूर्ख-गंवार हो.तबाही का कारोबार चलाने वाले ये लोग दरअसल, उच्च शिक्षा प्राप्त, तकनिकी-ज्ञान में माहिर और इतने शातिर-दिमाग हैं कि दुनिया की बड़ी से बड़ी ख़ुफ़िया-सुरक्षा एजेंसियों की भी आंखों में धूल झोंककर अपने मक़सद में क़ामयाब हो जाते हैं, वारदातों को अंज़ाम दे ही देते हैं.
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उच्च शिक्षा प्राप्त आतंकवादी |
एक समय दुनिया का मोस्ट वांटेड आतंकवादी रहा ओसामा बिन लादेन कौन था? ओसामा बिन लादेन उच्च शिक्षा प्राप्त था. उसने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी और तकनीकी ज्ञान में माहिर था.यही वज़ह है कि अमरीका जैसे शक्तिशाली और सुपर पावर कहे जाने वाले देश की तमाम ख़ुफ़िया एजेंसियों की आंखों में वर्षों धूल झोंकता रहा.
ओसामा बिन लादेन का दायां हाथ (Right Hand) समझा जाने वाला अयमन अल ज़वाहिरी आंखों का डॉक्टर हुआ करता था.1951 में मिस्र में जन्मे जवाहिरी ने 1974 में काहिरा के मेडिकल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और उसके 4 साल बाद यहीं से सर्जरी में मास्टर डिग्री भी हासिल की थी.
अबू बक़र अल बगदादी ने जिहाद का ख़ूनी खेल शुरू करने से पहले शरिया कॉलेज ऑफ़ बगदाद यूनिवर्सिटी का छात्र था.उसने कुरानिक रिसाइटेशन विषय में डॉक्टरेट की मानद उपाधि हासिल की थी.वह कई शैक्षिक संस्थानों से जुड़ा हुआ था और इस्लाम के प्रचार के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका में था.
अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट का मास्टरमाइंड और पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद नामक जिहादी-आतंकी संगठन के सरगना मौलाना मसूद अजहर ने पुणे के विश्वकर्मा इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की है.
लश्कर-ए-तैय्यबा नामक आतंकी संगठन के ज़रिए जिहाद के नाम पर ख़ूनी खेल खेलने वाले हाफ़िज़ सईद ने पाकिस्तान के पंजाब यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है.वह लाहौर स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी में इस्लामिक स्टडीज़ का लेक्चर/प्रोफ़ेसर भी रह चुका है.
इंडियन मुजाहिद्दीन (IM) के संस्थापक रियाज़ भटकल ने महाराष्ट्र के पुणे से पढ़ाई की थी.जिहादी दुनिया में दाख़िल होने से पहले वह पेशे से इंजीनियर था.
मक़बूल बट/भट ने इतिहास और राजनीति विज्ञान की शुरुआती पढ़ाई जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से की थी.उसने आगे की पढ़ाई पाकिस्तान के पेशावर यूनिवर्सिटी से पूरी की.मक़बूल यहीं एक उर्दू अख़बार में काम भी करता था.
संसद हमले के दोषी
अफज़ल गुरु ने अपनी शुरुआती पढ़ाई जम्मू-कश्मीर के सोपोर के एक सरकारी स्कूल में की थी.फिर, वह झेलम वैली मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस (MBBS) की पढ़ाई पूरी कर आइएएस (IAS) की तैयारी कर रहा था, उसी दौरान जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) के संपर्क में आया और जिहादी बन बन गया.
साल 2015 में फांसी के तख्ते पर लटकने वाला आतंकी याक़ूब मेमन चार्टर्ड अकाउंटेंट था.ट्रायल के दौरान जेल में रहते हुए उसने इग्नू से 2013 में अंग्रेजी और 2014 में राजनीति विज्ञान में एमए भी किया था.
देश को तोड़ने की बात करने वाला शरजील इमाम आईआईटी बॉम्बे से कंप्यूटर साइंस में एमटेक कर वहां बतौर सहायक शिक्षक काम करने के अलावा यूरोप जाकर आईटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोपेनहेगेन में बतौर प्रोग्रामर भी काम किया है.गिरफ़्तारी से पहले तक वह जेएनयू (JNU) में ‘मसलमानों की वर्तमान स्थिति और दंगा’ विषय पर पीएचडी कर रहा था.
यूपी के गोरखनाथ मंदिर पर हमला करने वाला लोन वुल्फ (आतंकी हमले को अकेले अंज़ाम देने वाला) मुर्तज़ा एक इंजीनियर है.उसने आईआईटी मुंबई से केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार पेट्रोकेमिकल्स जैसे नामी समूहों में बड़े ओहदों पर काम कर चुका है.उसे हाईटेक कंप्यूटर कोडिंग का भी ज्ञान है और पकड़े जाने से पहले वह बतौर एप डेवलपर काम कर रहा था.
मदरसा शिक्षा पद्धति ग़ैर-संवैधानिक
हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व 51A-H (अनुच्छेद 51ए 1949) में बड़ा स्पष्ट लिखा है कि हर नागरिक और राज्य का दायित्व बनता है कि वह बच्चों में वैज्ञानिक सोच (Scientific Aptitude) , मानवतावाद (Humanity) और जांच और सुधार (Critical Analysis) की भावना विकसित करे.लेकिन, दुर्भाग्यवश, बच्चों के साथ दो तरह का अन्याय होता है.पहला, किस घर में बच्चे ने जन्म लिया है, उस पर तो उसका कोई नियंत्रण नहीं है लेकीन, उसके पैदा होते ही वहां हम उस पर ठप्पा लगा देते हैं कि वह बच्चा मुसलमान है.वह क्या बनना चाहता है, उससे नहीं पूछा जाता.
दूसरा अन्याय वो है, जो उसके साथ मदरसों में होता है.बच्चा क्या पढ़ना-सीखना चाहता है, किन चीज़ों में उसकी रूचि है, किस प्रकार की उसकी प्रकृति व क्षमता है, और उसे क्या बताना-सिखाना उचित या अनुचित है, यह सब यहां बिल्कुल भी नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.यहां उसे दरअसल, केवल एक साधन के रूप में केवल और केवल इस्तेमाल किया जाता है.
मदरसे में बच्चों को पढ़ाया जाता है कि एक गॉड है, जो सातवें आसमान पर बैठा है.उसे अपनी बनाई दुनिया को कोई संदेश देना है, तो वह ख़ुद नहीं देता.इसके लिए वह किसी व्यक्ति को प्रतिनिधि या मध्यस्थ (Intermediary) के रूप में चुनता है, और उस प्रतिनिधि/मध्यस्थ को संदेश देने के लिए एक फ़रिश्ते (Angel) को चुनता है.अब, बिन्दुवार, क़दम-दर-क़दम देखिए कि यहां तर्क या वैज्ञानिक सोच कहां और क्या है.
मानवता की बात करें, तो मदरसों में बच्चों को, उन मासूमों को, जिन्हें यह भी नहीं पता कि इंसान या अन्य जीव-जंतु वास्तव में होते क्या हैं, समाज क्या होता है, जातियां क्या होती हैं, भेदभाव क्या होता है, उन्हें पढ़ाया जाता है कि काफ़िर-मुशरिक वाजिब-उल-क़त्ल (क़त्ल के लिए जायज़) हैं, उनका वध आवश्यक है.
ऐसे में, जो बच्चा 10-12 साल यहां पढ़ता है कि ग़ैर-मुस्लिम (दूसरे धर्म-मज़हब के लोग) सभी जीवों से नीच व घटिया हैं और उनकी हत्या उचित या न्यायसंगत है (जैसा कि उसका गॉड कहता है), तो उस पर क्या असर होगा? यहां से बाहर निकलने के बाद समाज में क्या वह घुलमिल पाएगा? नहीं.वह दरअसल, समाज के लिए बिल्कुल अयोग्य हो जाएगा, चाहे उसे इंजीनियर, डॉक्टर या वैज्ञानिक ही क्यों न बना दिया जाए.
ऐसे में, मदरसों को ख़त्म कर सभी बच्चों को सामान्य शैक्षणिक संस्थानों की ओर ले जाने की ज़रूरत है.मगर, विडंबना ये है कि ऐसा करने के बजाय नियमों को ताक पर रखकर राज्यों में बाक़ायदा मदरसा बोर्ड बना दिए गए हैं, जिनके ज़रिए मदरसों से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की डिग्री सामान्य शिक्षा में प्राप्त डिग्री के बराबर हो जाती है और उन्हें आगे दूसरे संस्थानों में जाने का मौक़ा मिल जाता है.इससे न केवल एक अतिवादी विचारधारा को प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि सामान्य शिक्षा संस्थानों के वातावरण पर भी असर पड़ता है.
मदरसों को पैसे देना कसाई के हाथ में छुरी ख़रीदकर देने जैसा है
भारत में आज एक लाख से भी ज़्यादा पंजीकृत-अपंजीकृत मदरसे हैं जहां क़रीब सवा करोड़ छात्र पढ़ते हैं.इनकी व्यवस्था के दो मुख्य आधार हैं- जकात या दान और सरकारी पैसा.
ज़कात या दान के रूप में मिलने वाला जो पैसा है, उसमें से ज़्यादातर (तक़रीबन शत-प्रतिशत) इस्लामी देशों जैसे अरब, पाकिस्तान, तुर्की आदि देशों से आता है, जो इस्लाम का प्रचार, धर्मपरिवर्तन और जिहाद के लिए ख़र्च होता है.यह अवैध तरीक़ों से आता है और अवैध तरीक़ों से ही ख़र्च भी होता है.
मदरसों की अर्थव्यवस्था का दूसरा अच्छा-ख़ासा ज़रिया है सरकारी ख़ज़ाना (जनता की गाढ़ी कमाई, टैक्स का जमा पैसा), जिसका पैसा भारत सरकार और राज्य सरकारें इन पर लुटाती हैं.
शिक्षा मंत्रालय के साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक़, 18 राज्यों में चलने वाले मदरसों में ‘शिक्षा की गुणवत्ता’ सुधारने के लिए केंद्र सरकार से मदद मिलती है.बाक़ी, राज्य अपनी ओर से ख़र्च करते हैं.
मदरसों पर जो जितना ज़्यादा ख़र्च करता है, वो उतना ही ज़्यादा सेक्यूलर और मुसलमानों का हितैषी समझा जाता है.ऐसे में, इस दौड़ में शामिल (तक़रीबन सभी) केंद्र-राज्य की सरकारें कट्टरपंथियों के क़दमों में बिछी चली जाती हैं, सरकारी ख़ज़ाने खोल दिए जाते हैं.
मगर, यह आसान नहीं है पता लगाना.यानि मदरसों पर कौन-सी सरकार कितनी ख़र्च कर रही है, यह जानना बहुत मुश्किल काम है क्योंकि आमतौर पर इनके बजट डॉक्यूमेंट में मदरसों पर होने वाले ख़र्च का अलग से ब्यौरा दर्ज़ ही नहीं होता.ब्यौरा सिर्फ़ शिक्षा पर ख़र्च का होता है, जिसमें अलग-अलग संस्थाओं को मिले अनुदान को खंगालकर ही जाना जा सकता है.
बहरहाल, वरीयता मदरसों को ही मिलती है.
केंद्र की मोदी सरकार ने तो इनके लिए ख़ज़ाना खोल दिया है.
यूपी में सीएम योगी की सरकार भी इसमें पीछे नहीं है.मोदी के निर्देश पर योगी भी मदरसों की भरपूर मदद कर रहे हैं.
ज्ञात हो कि भारत के चार राज्य ऐसे हैं, जहां 10 हज़ार से ज़्यादा मदरसे हैं, जिनमें 20 लाख से ज़्यादा छात्र पढ़ते हैं.इनमें से सबसे ज़्यादा मदरसे उत्तरप्रदेश में हैं जहां 8 हज़ार मदरसों में 18 लाख से ज़्यादा छात्र पढ़ते हैं.सीएम योगी ने वर्ष 2022-2023 के लिए 6 लाख 15 हज़ार 518 करोड़ के बजट में से अकेले मदरसों पर 479 करोड़ रूपये ख़र्च करने का ऐलान किया है.ख़ासतौर से, इसमें अरबी और फ़ारसी को हाईटेक बनाने की बात भी कही गई है.
मगर, यह कितनी अज़ीब बात है.एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री मोदी दुनियाभर में घूम-घूमकर आतंकवाद के खिलाफ़ एकजुट होने और इससे लड़ने की बात करते हैं, तो दूसरी ओर वह ख़ुद अपने देश में आतंकवाद की जड़ें मज़बूत करने की दिशा में बढ़-चढ़कर काम कर रहे हैं.क्या यही देशप्रेम है, देश की माटी से लगाव है? नहीं, कदापि नहीं.
देश से अगर प्रेम और इसकी माटी से लगाव होता, तो मेजर जनरल सुभाष शरण को दारुल उलूम देवबंद नहीं भेजा जाता.मेजर जनरल शरण वहां देशविरोधी ताक़तों की शान में क़सीदे नहीं पढ़ते और जिहादियों को
सेना में भर्ती का ऑफर नहीं देते.
दरअसल, यह वैचारिक दोगलापन तो है ही, देश की सभ्यता-संस्कृति के भी ख़िलाफ़ है.यह संविधान की आत्मा और उसके नियम के विरुद्ध है.ज्ञात हो कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 28 स्पष्ट कहता है कि राज्य की आर्थिक सहायता द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी.फिर, किस आधार पर मदरसों को तमाम अनुदान दिए जा रहे हैं, उनके सुधार और विकास के नाम पर देश के करदाताओं का पैसा क्यों लुटाया जा रहा है?
विडंबना यह है कि सामाजिक वैमनस्यता की जड़ और उसी विचारधारा का पोषण किया जा रहा है, जो देश को पहले ही एक बार बांट चुका है.क्या इसे फिर से बांटने का षड्यंत्र चल रहा है?
पूरी दुनिया जानती है कि मदरसों को दिया जाने वाला पैसा इंसानियत के क़त्ल, लूट और तबाही के काम आता है.यह किस क़दर ख़तरनाक है, इसकी गवाह-सबूत हमारी ख़ुफ़िया एजेंसिया और उनकी रिपोर्टें हैं, जो समय-समय पर सरकारों की आंखें और कान खोलने का निष्फल प्रयास करती रहती हैं.वे यह बताती हैं कि मदरसों को पैसे देना कसाई के हाथ में छुरी ख़रीदकर देने जैसा है.
मदरसों के जिहादी स्वरुप और ख़तरों का आकलन करते हुए समय-समय पर देश-दुनिया की कई बड़ी हस्तियों ने इस पर सवाल उठाए हैं, इनकी सच्चाई उजागर करते हुए इनकी जांच व कार्रवाई की भी सिफ़ारिश की है मगर, उस सब का नतीज़ा सिफ़र ही रहा है.
मदरसों पर कई बार लगे हैं गंभीर आरोप
मदरसों पर कई बार गंभीर आरोप लग चुके हैं,
ख़ुफ़िया एजेंसियों ने आगाह किया है, इनकी गतिविधियाँ ख़तरनाक पाई गईं हैं और पर्याप्त सबूत भी मिले हैं मगर, कोई रणनीति बनना तो दूर इस पर गहन चिंतन और खुली बहस का वातावरण भी नहीं बन पाया है.मतलब परस्त राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति हावी होने के कारण लोग ‘गुड टेररिज्म, बैड टेररिज्म’ की तरह ‘अच्छे मदरसे और बुरे मदरसे’ के विचारों में उलझे हुए हैं.
साल 2002 में पाकिस्तान जैसे दहशतगर्द और कट्टर इस्लामिक देश के सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ ने मदरसों की असलियत पूरी दुनिया के सामने रख दी थी.अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ एक साझा प्रेस कांफ्रेंस में मुशर्रफ़ कहा था कि पाकिस्तानी मदरसे आतंकवाद की नर्सरी हैं (Breeding Grounds of Terrorists) और वहां पढ़ने वाले युवा छात्र नहीं, बल्कि आतंकी हैं.
उत्तरप्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष वसीम रिज़वी ने 10 जनवरी, 2018 को कहा था-
” मदरसों में पढ़े हुए बच्चे आज तक, बताएं कि कितने डॉक्टर बने? कितने इंजीनियर बने? कितने अच्छी पोस्ट पर गए? कितने आइएएस या पीसीएस बने? हां, आतंकवादी ज़रूर बने हैं. ”
उन्होंने आगे कहा-
” पश्चिम बंगाल में कई ऐसे मदरसे पकड़े गए हैं जहां बाक़ायदा बम बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही थी.एक रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि 58 मदरसे जिहादी ग्रूप से जुड़े हुए हैं.
मुल्लाओं का यह एक धंधा बन गया है.मदरसे तो चंदे, जकात, दान आदि से चलते हैं और मदरसा खोलकर चंदा वसूल करना ही मक़सद हो गया है,ख़ुद उन मुल्लाओं के बच्चे तो अच्छे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं लेकिन, वे दूसरे ग़रीब बच्चों की जिंदगियां बर्बाद कर रहे हैं. ”
रिज़वी ने प्रधानमंत्री मोदी और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी को बाक़ायदा पत्र लिखकर मदरसों की जांच कराने और उन पर कार्रवाई की सिफ़ारिश की थी.उन्होंने लिखा-
” मदरसों में शिक्षित युवा रोज़गार के मोर्चे पर अनुत्पादक होते हैं.उनकी डिग्रियां सभी जगह मान्य नहीं होतीं और ख़ासकर निजी क्षेत्र में जो रोज़गार है वहां मदरसा शिक्षा की कोई भूमिका नहीं होती.ऐसे में पूरा समुदाय समाज के लिए हानिकारक हो जाता है.ज़्यादातर मदरसे ज़कात के पैसे से चल रहे हैं जो कि अरब, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों से आ रहे हैं.कुछ आतंकवादी संगठन भी अवैध रूप से चल रहे मदरसों को फंडिंग कर रहे हैं.एक रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि मुस्लिम इलाक़ों में ज़्यादातर मदरसे सऊदी अरब के भेजे धन से चल रहे हैं.इसकी जांच की जानी चाहिए. ”
प्रधानमंत्री को लिखी रिज़वी की चिट्ठी में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और उत्तरप्रदेश के शामली के मदरसों का भी ज़िक्र है.यहां आतंकवादियों को ट्रेनिंग देने और गोला-बारूद एक जगह से दूसरी जगह भेजने की बात कही गई है.शिया सेंट्रल वक्फ़ बोड ने अपनी इस रिपोर्ट में यूनिफ़ॉर्म एजुकेशन की वक़ालत की है, ताकि सभी लोगों को एक जैसी शिक्षा मिल सके.
ग़ौरतलब है कि वसीम रिज़वी की चिट्ठी मोदी-योगी का ध्यान आकर्षित करे, इससे पहले देश में तूफ़ान खड़ा हो गया.रिज़वी निशाने पर आ गए और उनके क़त्ल तक की धमकी दी जाने लगी, फ़तवे जारी हो गए.सारा विपक्ष खड़ा हो गया और कट्टरपंथियों के सुर में सुर मिलाने लगा.फिर, मोदी-योगी सरकारें और बीजेपी भी सामने आईं और उन्होंने भी अपने तुरूप का पत्ता खोल दिया.बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने पार्टी और सरकारों के इरादे ज़ाहिर करते हुए मीडिया को बता दिया-
” भारतीय जनता पार्टी का मदरसे बंद करने का कोई इरादा ना कभी पहले था और ना कभी आगे होगा.इस तरह का कोई इरादा ना मोदी जी की सरकार का है और ना योगी जी की सरकार का है.”
इस प्रकार, बात आई-गई और ख़त्म हो गई.मदरसे पहले की तरह ही गजवा-ए-हिन्द के अपने मिशन में जुट गए.वे सरकार और प्रशासन की देखरेख में वे वह सब कुछ कर रहे हैं, जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान करते रहे हैं और आज कर रहे हैं.
तालिबान की अम्मा है दारुल उलूम देवबंद
दुनिया में क्रूरता का दूसरा नाम तालिबान भारत में पनपी और पली-बढ़ी देवबंदी विचारधारा से प्रभावित (सुन्नी इस्लामिक आधारवादी) एक परंपरागत ख़ूनी आन्दोलन है, जिसमें पाकिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्र शामिल होते हैं.
भारत के
दारुल उलूम देवबंद में पढ़ने वाला छात्र तलबा कहलाता है और इसी तलबा शब्द से तालिबान बना है.दारुल उलूम देवबंद मदरसे का आतंकवाद के क्षेत्र में, ख़ासतौर से, तालिबान की स्थापना के पीछे बहुत बड़ा वैचारिक योगदान है.इसी कारण पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में फैली इसकी शाखाओं को तालिबान की चाची, ख़ाला और फूफी कहते हैं, जबकि दारुल उलूम देवबंद को इसकी अम्मा बताया जाता है.
दुनियाभर में इसकी पहचान है और आतंकी संगठन इसको सम्मान की नज़र से देखते हैं.यहां पढ़े छात्र ज़्यादातर इस्लाम के प्रचार, धर्मांतरण (हिन्दुओं को मुसलमान बनाने), जिहाद की रणनीति के माहिर होते हैं.इन्हें देश के किसी भी मदरसे, देशविरोधी गतिविधियों के विभिन्न केंद्र और
हलाल सर्टिफिकेशन केंद्रों में जगह मिल जाती है.
ग़ौरतलब है कि दारूल उलूम देवबंद के विचारों और कार्यों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो प्रभावित नज़र आते हैं मगर, इनकी ही सरकार के काबिना (कैबिनेट) मंत्री
गिरिराज सिंह इस संगठन को आतंकियों का अड्डा बताते हुए इसे बंद करने की बात करते हैं.अब कौन सही है और कौन ग़लत, यह बुद्धिजीवि जनता ही तय कर सकती है मगर, यह सच्चाई बहुत कम ही लोगों को मालूम है कि दारुल उलूम देवबंद की स्थापना अंग्रेजों को भगाकर हिंदुस्तान में फिर से इस्लामी शासन की स्थापना करने के मक़सद से हुई थी.अब अंग्रेज तो रहे नहीं, तो निशाने पर भारत सरकार है.भारत सरकार से इस्लाम की तब तक जंग चलती रहेगी जब तक कि यहां अहकाम-ए-इलाही और निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा की स्थापना नहीं हो जाती.
इस प्रकार, यहां सब कुछ बहुत साफ़ और आंखें खोलने वाली हैं.मगर, हमारे देश के राजनीतिक दलों, चाहे वे मध्यममार्गी हों, वामपंथी हों या फिर दक्षिणपंथी, सभी ने सरकार में रहते मदरसों को ऐसे पेश या प्रचारित किया है कि जैसे वे राष्ट्रीय महत्त्व की विशेष संस्था या कोई ऐसी चीज़ हों जिनके संरक्षण व विकास के बिना देश का सम्मान व विकास अधूरा है.इस कारण देश के नागरिक तो भ्रमित हैं ही, विदेशों में भी हमारी सोच पर सवाल उठते हैं.
अंत में, बस यही कहा जा सकता है कि बौराए पशु-पक्षी भी अपनी मांद और घोंसलों में आग नहीं लगाते मगर, हमारे राजनेता ऐसे हैं, जो चंद वोटों की ख़ातिर समाज और देश को ख़तरों में डाल देते हैं और बरबादी का सबब बनते हैं.हमारी सुरक्षा को जिससे ख़तरा है, उस पर लगाम लगाने के बजाय वे तरह-तरह के बहाने गढ़कर उसे सींचते-संवारते रहते हैं, और उसे और ख़तरनाक बना देते है.किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
अपनी वज़ह-ए-बरबादी अजी सुनिए तो,
हम अपनी ज़िंदगी से यूं खेले जैसे दूसरे की है|
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