आपदा
दरके हुए पहाड़ों के मलबे पर बसे जोशीमठ को बचाना मुश्किल है!

इसे नर और नारायण पर्वत के आपस में मिलने की भविष्यवाणी कहिए या विशेषज्ञों की दशकों पुरानी आशंका, इनके सच होने का समय क़रीब दिखाई दे रहा है.ऐसे में जोशीमठ में एक हज़ार साल पहले आई बड़ी प्राकृतिक आपदा की पुनरावृत्ति होगी.
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जोशीमठ में भूधसान, सड़कों और घरों में दरारें |
उत्तराखंड के चमोली जिले में ऋषिकेश-बद्रीनाथ नेशनल हाइवे (एनएच-7) बसे पहाड़ी शहर जोशीमठ के लोग दहशत में हैं.क्योंकि कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है इसलिए वे अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर हैं, जबकि वे यहां कई पीढ़ियों से रहते आए हैं.
इन्होंने अपने जीवन भर की कमाई तो गंवा दी ही है, इस क्षेत्र के तमाम संसाधन और अवसर भी ख़त्म होते दिखाई दे रहे हैं.मगर, क्यों? क्यों ऐसे हालात बन गए हैं?
दरअसल, समस्या बहुत गंभीर है.जोशीमठ का अस्तित्व ही ख़तरे में है.यहां सड़कों और घरों में दरारें आ रही हैं.दरारें चौड़ी हो रही हैं, और भूधंसाव हो रहा है.
जब ज़मीन ही धंस रही है, तो उन मकान-दुकान और व्यापारिक-व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के मायने ही क्या रह जाते हैं, जो उन पर स्थित हैं.मगर, ज़मीन आख़िर धंस क्यों रही है? क्यों घरों की दीवारें-फ़र्श फट रही हैं, और उनका स्तर लगातार नीचे की ओर सरकता जा रहा है?
हाल ही में सेटेलाइट से ली गई तस्वीर में पता चलता है कि यह इलाक़ा 4-5 सेंटीमीटर नीचे चला गया है.ऐसा क्यों हो रहा है, इसकी तह में जाना आवश्यक है.
क्यों बन गए हैं जोशीमठ में ऐसे हालात?
जोशीमठ में हालात के बिगड़ने के पीछे दो मुख्य कारण हैं.पहला, जलवायु परिवर्तन जो कि एक बल गुणक (गुणन अंक जैसा, ज़्यादा बढ़ाने वाला) है.जिस प्रकार यहां मौसम में बदलाव हो रहा है वह अभूतपूर्व है.मिसाल के तौर पर, साल 2021-22 में उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएं आती रही हैं.बहुत ज़्यादा बारिश हुई है, जो भूस्खलन का कारण बनती है.
दूसरा, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढ़ांचे का विकास है, जो हिमालय जैसे नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र में बिना किसी नियोजन के हो रहा है.
दरअसल, जोशीमठ पुराने भूस्खलन के अवशेषों यानि, दरके हुए पहाड़ों के मलबे पर बसा है.इसकी मोटी परत या पत्थरों की संरचना क्वार्टजाइट व मार्बल की है, जिसकी क्षमता कमज़ोर होती है.यानि, इस शहर की प्राकृतिक संरचना कमज़ोर है, जबकि इस पर अत्यधिक दबाव है.साथ ही, शहर में उचित सीवरेज और ड्रेनेज (नालियां) की कोई व्यवस्था न होना नुकसानदेह तो है ही, बरसों से यहां अनियोजित और अवैज्ञानिक तरीक़े के निर्माण कार्य जारी है, जो समस्या को और बढ़ा रहा है.
हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि जोशीमठ मोरेन (असंपीडित मलबे का संचय, जिसे ग्लेशियर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा देती है, और जो बोल्डर से लेकर बजरी और रेत तक के होते हैं) पर स्थित है.मगर, यह सही नहीं है.वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों के अनुसार, जोशीमठ उन पदार्थों पर बसा है, जो गुरुत्व बल (गुरुत्वाकर्षण) के कारण पहाड़ों के टूटने पर संचित या ओकत्था होते हैं.इन्हें भूस्खलन सामग्री (लैंडस्लाइड मटीरियल) यानि, टूटे हुए पहाड़ों का मलबा कहते हैं.उनका कहना है-
” मलबे के चट्टानों के बीच महीन सामग्री के क्रमिक अपक्षय के अलावा, पानी के रिसाव ने समय के साथ चट्टानों की सोखने की शक्ति को कम कर दिया है.इसी वज़ह से भूस्खलन हुआ है, जिससे सड़कों और घरों में दरारें आ गई हैं. “
अब यहां ‘चट्टानों के बीच महीन सामग्री का क्रमिक अपक्षय’ तो प्राकृतिक है मगर, पानी का अत्यधिक रिसाव अपने आप नहीं हुआ है, और यह मानव जनित (मानव गतिविधियों के कारण उत्पन्न स्थिति) है.
बताया जा रहा है कि इस बेहद नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहे बड़े पैमाने पर बुनियादी ढ़ांचे के विकास के कारण पानी के लगातार और अत्यधिक मात्रा में रिसाव से ज़मीन के नीचे का जलभंडार ख़ाली हो गया है.
ख़ासतौर से, इलाक़े में नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन (NTPC) के विष्णुगढ़ हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट के लिए खोदी जा रही टनल (सुरंग) इसका बड़ा कारण है.
ज़मीन के नीचे का जलभंडार ख़ाली हो जाने से जोशीमठ क्षेत्र और आसपास के अधिकांश छोटे झरने और पानी के स्रोत सूख गए हैं.विशेषज्ञों के अनुसार, पानी के अभाव में यहां नीचे की ज़मीन सूख गई है और इसी कारण यहां दरारें आ रही हैं, और भूधसान हो रहा है.
मगर इसके अलावा भी, कुछ ऐसे तथ्य भी हैं, जो इस समस्या के लिए ज़िम्मेदार हैं.मसलन जोशीमठ के चारों तरफ़ से नदियों घिरा होने के चलते इसकी भूमि का कटाव (ख़ासतौर से अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों से) तो होता ही है, यहां बारहमासी जलधारा के निरंतर प्रवाह से धरातल पर नमी बनी रहती है, जो ज़मीन की भीतरी चट्टानों को क्षति पहुंचाती है.
जोशीमठ में भारी बर्फ़बारी और तेज बारिश तो होती ही है, जब बर्फ़ पिघलती है, तो पानी के तेज बहाव से भी भूस्खलन के हालात पैदा हो जाते हैं.
इसके अलावा, इस क्षेत्र की चट्टानें, जो बाउल्डर, नीस चट्टानें और ढ़ीली मृदा (भूमि की उपरी परत) से ढंकी हुई हैं, इनकी बोझ सहने की शक्ति कम है.
ख़ासतौर से, नीस चट्टानें (तापमान और दबाव के कारण मेटामौर्फ़िक चट्टानों का परिवर्तित रूप), जिसकी मात्रा यहां अधिक पाई जाती है वह शीघ्र नाशवान (जल्दी नष्ट होने वाली) होने के साथ-साथ ऐसी होती हैं, जो बारिश के पानी में गीली होने पर इनके छेद पर दबाव ज़्यादा बढ़ जाता है और इसके परिणामस्वरूप इनकी संयोजन शक्ति (जोड़कर रखने की ताक़त) कम हो जाती है.
ज्ञात हो कि जोशीमठ (ज्योतिर्मठ का अपभ्रंश/बिगड़ा रूप), जिसे गेटवे ऑफ़ हिमालय भी कहते हैं, भारत के लिए आध्यात्मिक और सामरिक, दोनों ही दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है.यहीं आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित पहला मठ (हिन्दुओं की प्रसिद्ध ज्योतिषपीठ या ज्योतिर्मठ) है, तो भारतीय सेना व आइटीबीपी का बेस कैंप भी है.यानि, यह स्थान सनातन हिन्दू धर्म-संस्कृति और आध्यात्म का संवाहक होने के साथ-साथ देश का सीमा प्रहरी भी है.
इसके अलावा, यह बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब, फूलों की घाटी, प्रथम गांव माणा का अहम पड़ाव और अंतर्राष्ट्रीय हिम क्रीडा केंद्र औली का प्रवेश द्वार भी है.
ऐसे में, इसे बचाए रखना कितना ज़रूरी है, यह समझा जा सकता है.जोशीमठ की सुरक्षा जहां सरकारों की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है वहीं, इसको लेकर देश के हर नागरिक का भी कर्तव्य बनता है.मगर दुर्भाग्यवश, इसके संकट की आहट बहुत पहले से और लगातार सुनने और देखने के बावजूद इसकी सुध नहीं ली गई.
जोशीमठ के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और उसको लेकर संभावनाओं से संबंधित धार्मिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्षों के साथ-साथ कई पर्यावरणीय-वैज्ञानिक पक्ष भी हैं, जो पहले से खुली चेतावनी देते हैं.ये ऐसे भी नहीं हैं, जो क्लिष्ट हों, बल्कि वही सब कुछ सरल रूप में व स्पष्ट बताते हैं, जिनसे आज हमारा सामना हो रहा है.
शिलालेख, ताम्रपत्र, पांडुलिपियों और इतिहास की किताबों में वर्णन
जोशीमठ में नरसिंह (एक देवता जो आधे नर और आधे सिंह/शेर के रूप में हैं), जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है, मंदिर है.नरसिंह की मूर्ति की एक भुजा (हाथ) कमज़ोर है, और यह समय के साथ पतली होकर और कमज़ोर होती जा रही है.
जानकारों के अनुसार, केदारखंड और सनतकुमार संहिता (ब्रह्मा के मानस पुत्रों द्वारा रचित ग्रंथ) में ऐसा वर्णन है कि जिस दिन यह भुजा मूर्ति से अलग हो जाएगी यानि, मूर्ति खंडित हो जाएगी उसी दिन नर और नारायण पर्वत (जिन्हें जय और विजय पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, और ये विष्णुप्रयाग के क़रीब पटमिला नामक जगह पर स्थित हैं) ढहकर एक हो जाएंगें, और बद्रीनाथ मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा.फिर, भगवान बदरी के दर्शन तपोवन क्षेत्र में स्थित भविष्य बद्री मंदिर में होंगें.
यानि, यह स्पष्ट रूप से भूस्खलन और तबाही की ओर संकेत करते हैं.
शिलालेख, ताम्रपत्र और पांडुलिपियां तो जोशीमठ के बारे में बताती ही हैं, इसका वर्णन इतिहास की किताबों में भी मिलता है.इतिहासकार योगम्बर सिंह बर्थवाल ने देवभूमि और जोशीमठ के बारे में लिखा है.इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल ने अपनी किताब ‘उत्तराखंड का इतिहास’ में लिखा है कि क़रीब एक हज़ार साल पहले भी भूस्खलन के चलते जोशीमठ में भारी तबाही हुई थी.उस वक़्त यह (जोशीमठ) कत्युरी राजवंश (छठवीं से ग्यारहवीं सदी तक) की राजधानी हुआ करता था.मगर, मजबूरन उन्हें फिर अपनी राजधानी को कुमाउं की ओर कार्तिकेयपुर में स्थानांतरित करना पड़ा था.
विदेशी लेखकों ने दिए थे तबाही के संकेत
क़रीब नौ दशक पहले प्रोफ़ेसर अर्नोल्ड हेम और और प्रोफ़ेसर आगस्टो गैंसर नामक विशेषज्ञों ने अपनी किताब ‘Central Himalaya Geological observations of the Swiss expedition 1936’ में जोशीमठ के एमसीटी में होने और लैंडस्लाइड (भूस्खलन) के ढेर पर बसे होने की बात लिख दी थी.
जानकारों के अनुसार, जोशीमठ एमसीटी यानि, मेन सेन्ट्रल थ्रस्ट (बड़े और छोटे हिमालय और वृहत्तर हिमालय के बीच एक प्रमुख भूवैज्ञानिक भ्रंश रेखा) जोन (क्षेत्र) के क़रीब है, जिसके कारण भारतीय और तिब्बती प्लेटों के बीच टकराव के दौरान यहां अस्थिरता की स्थिति रहती है.
47 साल पहले ‘मिश्रा कमेटी’ ने चेताया था
साल 1976 में भी जोशीमठ में भूस्खलन की कई घटनाएं हुई थीं.तब गढ़वाल के तत्कालीन मंडलायुक्त (कमिश्नर) महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में गठित विज्ञानियों की 18 सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की सिफ़ारिश के साथ ही कहा था कि शोध के बाद ही ज़रूरी विकास कार्यों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए.
समिति ने यह भी कहा था कि बड़े निर्माण कार्य, ब्लास्टिंग या सड़क की मरम्मत और चौड़ीकरण के लिए इरैटिक बोल्डर (अस्थिर, अनियमित बड़े पत्थर) हटाने और अन्य निर्माण, पेड़ों की कटाई आदि पर प्रतिबंध लगे.मगर, सरकार ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया या इस तरफ़ आंखें मूंद ली गईं.इसके बाद यहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाए गए और सड़क के चौड़ीकरण आदि कार्य तो शुरू हुए ही, शहर के भीतर वैध-अवैध निर्माण और विकास भी जारी रहे.
इसके अलावा, साल 2006 में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट में जोशीमठ में ख़तरे को लेकर आगाह किया गया था.
साल 2010 में ‘करेंट साइंस जर्नल’ (सीवी रमण द्वारा 1932 में स्थापित) में छपी एक रिपोर्ट में विष्णुगढ़ हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट के लिए सुरंग निर्माण और इसमें टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) के उपयोग को ख़तरनाक़ बताया गया था.
साल 2013 में केदारनाथ की तबाही के बाद ‘विशेषज्ञों की समिति’ (एक्सपर्ट कमेटी) की रिपोर्ट में भी इस ओर ध्यान खींचा गया था.
जुलाई 2022 में विशेषज्ञों की रिपोर्ट में जोशीमठ व आसपास के क्षेत्रों में संभावित ख़तरे की बात कही गई थी.
सितंबर 2022 में सरकार की ओर से गठित वैज्ञानिकों की एक टीम ने भी अपनी रिपोर्ट दी थी.इसमें जल रिसाव को जोशीमठ की समस्या की ख़ास वज़ह बताया गया था.
इस प्रकार, हमने देखा कि जो संकट आज हमारे सामने है वह अचानक नहीं उठ खड़ा हो गया है, बल्कि इसके बारे में हम बहुत पहले ही जान-समझ गए थे.दरअसल, वैज्ञानिकों-पर्यावरणविदों की चेतावनियों को अनदेखा कर ये मुसीबत हमने मोल ले ली है.
ऐसे में, गढ़वाल हिमालय में 1890 मीटर की ऊंचाई पर एक नाजुक पहाड़ी की ढलान पर बसे जोशीमठ को बचाने के लिए इसकी मृदा की क्षमता को बनाए रखने के लिए विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में पुनर्रोपण तो ज़रूरी है ही, इसमें सीमा सड़क संगठन जैसे सैन्य संगठनों की मदद से सरकार और विभिन्न नागरिक निकायों द्वारा एक साझे प्रयास की आवश्यकता भी है.
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