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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

डॉक्टर ख़ुद ही भगवान बन बैठे, या बनाए गए?

 प्राचीन काल से ही लोगों का इलाज करते और नई ज़िन्दगी देते आए हमारे वैद्य या चिकित्साशास्त्री जो हासिल नहीं कर पाए वह ख़िताब, गले में क्रूस टांगे और हाथों में अंग्रेजी गोलियां व इंजेक्शन लिए बाहर से आए लोगों ने अपने नाम कर लिया.हमारे आयुर्वेदाचार्य जहां आयुर्विज्ञान के भक्त और जनता के सेवक ही बने रह गए वहीं, डॉक्टर भगवान बन गए.मगर, क्या वे ख़ुद ही भगवान बन बैठे, या उनकी ताज़पोशी के लिए कोई विशेष रणनीति अपनाई गई थी?

एलोपैथी बनाम आयुर्वेद, डॉक्टर ही भगवान, जान बचाने वाले
ईसाइयत और एलोपैथी का घालमेल (सांकेतिक)  
सवाल तो यह भी बनता है कि डॉक्टर ख़ुदा क्यों नहीं बने, या बनाए गए.आख़िर इसमें भी तो फ़ायदा ही था? मगर, ऐसा नही हुआ.यहां तक कि ‘परमेश्वर का पुत्र’ या परमेश्वर बनने के बजाय उन्होंने केवल और केवल भगवान का ही पद चुना, इसके पीछे कोई विशेष कारण या बड़ा उद्देश्य था?

बहरहाल, मसला भारत और भगवान का है इसलिए, ख़ासतौर से, इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में और संबंधित विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है.

ज्ञात हो कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति, जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी कहा जाता है, भारत में ईसाइयत के साथ ही आई.उस वक़्त मिशनरी यानि ईसाई धर्मप्रचारक ही एलोपैथिक डॉक्टर हुआ करते थे, जिन्हें भारतीय ‘अंग्रेजी डॉक्टर’ कहते थे.आज भी आम बोलचाल की भाषा में इन्हें इसी नाम से जाना जाता है.

ऐसे में, भारत में ईसाइयत के आगमन को भारत के प्रवेश के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, ताकि वास्तविक स्थिति स्पष्ट हो सके.

क्योंकि इतिहास के नाम पर अब तक लीपापोती ही होती रही है और सच को छुपाया जाता रहा है, जिससे आज भी बहुत सारे लोगों में भ्रम की स्थिति बनी हुई है.क्या उन्हें सच जानने का अधिकार नहीं है?


कैसे थे हालात तब?

हमें यह समझना होगा कि अंग्रेज भारत आए तब यहां मुग़लों का शासन था.मुग़ल विदेशी तो थे ही, उनकी आक्रांता और बर्बर छवि सैकड़ों साल भारत में रहने और यहां के वातावरण समझने के बाद भी नहीं बदली थी.वे फ़िरकापरस्त, जुल्मी और अय्याश थे इसलिए, हिन्दू हर हाल में उनसे निजात पाना चाहते थे.

दूसरी तरफ़, हिन्दू समाज बिखरा हुआ था.कुछेक को छोड़कर, छोटे-छोटे राजा या रियासतें एक दूसरे से ही लड़-झगड़कर ऐसी स्थिति में पहुंच गई थीं कि उन पर आसानी से क़ाबू पाया जा सकता था.

अविभाजित भारत प्राकृतिक रूप (संसाधनों) से इतना समृद्ध था कि जिस पर बड़े-से-बड़े साम्राज्य की स्थापना हो सकती थी.

अतः, इन सारी चीज़ों ने अंग्रेजों को इस क़दर ललचाया कि उनका उद्देश्य अब यहां व्यापार से आगे बढ़कर शासन स्थापित करने तक जा पहुंचा.

इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज़ है कि किस तरह अंग्रेज ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के तहत इस पूरे उपमहाद्वीप में छा गए.ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह अब ब्रिटिश हुकूमत क़ायम थी और भारत इस्लाम के ख़ूनी पंजों से निकलकर ईसाइयत के मीठे ज़हर के चंगुल में पहुंच गया था.

मगर, अंग्रेज वास्तविक सत्ता का मतलब जानते थे.उन्हें पता था कि सामाजिक परिवेश को प्रभावित किए बिना अथवा जनमानस पर अपनी छाप छोड़े बिना किसी भी स्थान-क्षेत्र विशेष पर एक मज़बूत हुकूमत क़ायम नहीं हो सकती.

जबरदस्ती के दिन बहुत थोड़े होते हैं, जबकि प्यार या छल की अवस्था दीर्घजीवी हो सकती है.

ऐसे में अंग्रेजों ने इस्लामी तौर-तरीक़ों से अलग ईसाइयत के फ़ॉर्मूले पर काम किया.इसमें एक तरफ़ तो अंग्रेजी शासन भारत को अंग्रेजियत के सांचे में ढालने में प्रयासरत था, तो दूसरी तरफ़ मिशनरियां अपना काम कर रही थीं.

मिशनरियां सीधे समाज के अंदर घुसकर लोगों के खान-पान, रहन-सहन और यहां तक कि धार्मिक आस्था और विश्वास को प्रभावित करने का काम करती थीं.यह सारा कुछ इस तरह और योजनाबद्ध तरीक़े से होता था कि समाज से अलग-थलग पड़े कुछ वर्ग और वनवासी लोग आसानी से झांसे में आ जाते थे.

मगर, शेष समाज की आस्था की जड़ें इतनी मज़बूत थीं कि उस पर मिशनरियों का जादू नहीं चल पाता था.


अंग्रेजी दवाइयां बनी बड़ा हथियार

भारत म ईसाइयत के विस्तार के मार्ग में जो चीज़ सबसे सहायक बनी, वह थी अंग्रजी या एलोपैथिक दवाइयां.अंग्रेजों ने भारत में जहां अंग्रेजी दवाओं को स्वास्थ्य मानव जीवन के लिए वरदान बताते एक दिव्य वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया वहीं, लोगों का इलाज करने वाले डॉक्टर रूपी मिशनरियों को देवदूत या भगवान के रूप प्रचारित किया.

दरअसल, इस सब के लिए भारत में परिस्थितियां भी अनुकूल थीं.बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को जलाए जाने के बाद जहां आयुर्वेद के ज्ञान का प्रमुख भंडार ख़ाक मेमिल चुका था वहीं, लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के वाले हमारे वैद्य या आयुर्वेदाचार्य मुग़लिया सल्तनत के बाद अब अंग्रेजी हुकूमत के निशाने पर थे.

आयुर्वेद मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया था.जड़ी-बूटियों की जगह टोने-टोटके ने ले ली थी, जिससे समाज में वैचारिक अराजकता का माहौल बन गया था.अंगेजों ने इस स्थिति को भांप अंग्रेजी दवाइयों पर ज़ोर दिया, और इसका जमकर प्रचार-प्रसार किया जाने लगा.

मिशनरी लोगों के बीच जाकर अंग्रेजी दवाइयों का प्रदर्शन करते.बीमार-लाचार लोगों को गोलियां और भिन्न-भिन्न प्रकार के घोल पिलाये जाते, जो (अपनी प्रकृति के मुताबिक़) जल्दी असर करते थे.

महामारी से प्रभावित लोगों की मौत के लिए आयुर्वेद को ज़िम्मेदार ठहराया जाता था.वैद्य शैतान बताये जाते थे, जबकि अंग्रेजी दवा से इलाज करने वाले डॉक्टरों को महिमामंडित किया जाता था, उन्हें भगवान का रूप बताया जाता था.

यह सब कुछ इस प्रकार और सुनियोजित तरीक़े से चला कि धीरे-धीरे षड्यंत्र अपना असर दिखाने लगा.लोगों को अपने ज्ञान-विज्ञान और चिकित्साशास्त्र से मोहभंग होने लगा.अंग्रेजी दवाइयां भाने लगीं, और डॉक्टरों में भगवान का रूप नज़र आने लगा.

मगर, अंग्रेज इतने से ही संतुष्ट नहीं थे.वे अंग्रेजी यानि एलोपैथिक इलाज और दवाइयों को कुछ यूं शामिल करना चाहते थे, जिससे यह हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर हमारी ज़रूरत और मज़बूरी बन जाएं.इस दिशा में उन्होंने तब भी काम किया जिन दिनों भारत में उनके खिलाफ़ लड़ाइयां लड़ी जा रही थीं.

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को ख़त्म करने के लिए ही अंग्रेजों ने वर्ष 1928 में इंडियन मेडिकल एसोसियेशन (IMA) और 1933 में मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया (MCI) जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की स्थापना की, जिनका नियंत्रण पूरी तरह मिशनरियों के हाथ में था.दोनों आज भी वैसे ही चल रहे है, और अपने मक़सद में क़ामयाब भी हैं.


आज़ादी के बाद और बढ़ावा मिला

190 साल की अंग्रजों की ग़ुलामी में जो कुछ नहीं हो पाया, वह आज़ादी के बाद के सात दशकों में हुआ.इस दौरान देश की सरकारों ने वही किया, जो अंग्रेज अपनी हुकूमत में रहते करना चाहते थे मगर, पूरा नहीं कर पाए थे.हमारे नेताओं ने अंग्रेजों की राह पर चलते हुए आयुर्वेद की उपेक्षा की, जबकि एलोपैथी को इस क़दर बढ़ावा दिया कि देश-दुनिया की नज़र में अस्पताल मंदिर बन गए, और डॉक्टर उसके भगवान.

दरअसल, भारत वह इकलोता देश है जहां शास्त्रार्थ की परंपरा रही है.हम आंख मूंदकर किसी बात पर यक़ीन नहीं करते थे.मगर, कालांतर में ऐसी उल्टी गंगा बही कि आस्था के नाम पर पाखंड हावी हुआ, और तर्क कहीं ग़ुम हो गया.सवालों का सिलसिला थमा, तो प्रोपेगंडा या अधिप्रचार काम करने लगा.आज़ादी  बाद भी इसने पीछा नहीं छोड़ा.

गांधी जी के मरने के बाद उनके मुंह में ‘हे राम’ डाल दिया गया.

इस तरह के और भी कई उदाहरण मौजूद है.लेकिन, ग़ुलाम मानसिकता के नेताओं ने अब तक षड्यंत्र ही किया है.

हमारी बिकाऊ मीडिया की नज़र में हमारे आयुर्वेद के चिकिसक ‘चूरन बेचने वाले’ हैं, जबकि अंग्रेजी डॉक्टर प्राण-रक्षक और भगवान हैं.

हर साल 1 जुलाई को डॉक्टर्स डे पर अस्पतालों और छोटे-बड़े डॉक्टरों (जो भी न्यूज़ के लिए पैसे ख़र्च करता है) की क्लीनिकों पर जमकर मीडिया कवरेज होती है, अख़बारों में लेख लिखे जाते हैं और न्यूज़ चैनलों पर विशेष कार्यक्रम प्रसारित होते हैं.

अपने लेखों में मीडिया बताती है कि भगवान गणेश की सूंड की तरह गले में स्टेथेस्कोप लटकाए हुए डॉक्टर धरती पर साक्षात भगवान गणेश नज़र आते हैं.ऐसे में, सवाल उठता है कि अगर भगवान गणेश की सूंड की तरह स्टेथेस्कोप लटकाए डॉक्टर भगवान जैसे लगते हैं, तो नाटक कंपनियों के उन कलाकारों को क्या कहा जाए, जो अपनी वेशभूषा में और भूमिका से दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं, रूला देते हैं?

 

उठ रहे हैं अब सवाल

एक बड़ी लॉबी कहें या एक बहुत बड़ा झूठतंत्र सक्रिय है इस देश में, जो बहुत कुछ नियंत्रित करता है.यह यहां नीति-निर्धारण में भी दख़ल देता है.

मगर, हवा के रुख़ में अब कुछ बदलाव भी नज़र आ रहा है.लोग सवाल कर रहे हैं.लोग अब वह सब कुछ जानना चाहते हैं, जिन्हें अभी दफ़न करने की कोशिश हुई थी.साथ ही, आज के हालात पर खुली चर्चाएं भी हो रही हैं.

सच कहा जाए तो, एक लबे अंतराल के बाद हमारे देश का युवा फिर से प्रखर और मुखर है.मगर क्या, चाहे वे विपक्षी हों या शासन-व्यवस्था में बैठे लोग, किसी के भी पास उनके सवालों का ज़वाब है?


कोरोना में मरीज़ों को मारने वालों को भगवान कहें?

कोरोना काल में जब लोगों की सांसें थम रही थीं तब कई डॉक्टर ऐसे थे, जो मरीज़ों के जीवन की डोर थामे हुए थे.मौत का सामना करते, लाखों ज़िंदगियां बचाने वाले इन डॉक्टरों को दुनियाभर में ‘फ्रंटलाइन हीरो’ या कोरोना योद्धा कहा गया, महत्वपूर्ण सम्मान दिया गया.मगर, आपदा में अवसर तलाशने वाले उन निजी अस्पतालों और उनके डॉक्टरों को क्या कहा जाए, जिन्होंने इलाज के नाम पर मरीज़ों को जीते-जी तो जमकर लूटा ही, उनकी मौत के बाद भी उगाही करते रहे?

ऑक्सीजन की कमी का खेल, सिलिंडरों की कालाबाज़ारी और रेमडेसिविर इंजेक्शन की सौदेबाज़ी याद कर आज भी बदन सिहर उठता है.

अस्पतालों में लोगों का इलाज कुछ यूं होता था कि जल्दी बेड ख़ाली हो, और दूसरे मरीज़ से कमाई की जाए.इस प्रक्रिया को क्या नाम देंगें?

उन सरकारी अस्पतालों को मंदिर और उनके डॉक्टरों को भगवान कहेंगें, जिनकी बेरुख़ी के चलते अनगिनत लोग बेमौत मारे गए?

लाशों के लगने वाले अंबार में, कितनी लाशें लापरवाही, कितनी ग़लत इलाज और कितनी जानबूझकर बुलाई गई मौत के कारण शामिल होती थीं, यह किसी से छुपा है? केंद्र-राज्य की सरकारों ने दबी ज़ुबान में ही सही, इसे स्वीकारा था.


सेहत को व्यवसाय बनाने वालों को क्या कहा जाए?

अस्पताल, डॉक्टर और फार्मा कंपनियों की तिकड़ी ने आज सेहत को व्यवसाय बना दिया है.हालत ऐसी हो गई है कि बीमार व्यक्ति अस्पताल जाने से घबराता है.दरअसल, उसे पता नहीं होता कि उससे कितनी उगाही की जाएगी.इस बात का भी भरोसा नहीं होता कि जीवनभर की जमापूंजी न्यौछावर करने के बाद भी जान बचेगी या नहीं.

आजकल अस्पताल दरअसल, ऐसी जगह बन गए हैं जहां डॉक्टर की प्राथमिकता इलाज के नाम पर मरीज़ों से पैसे ऐंठना है.यहां दाख़िल होते ही कई प्रकार की अनावश्यक जांच, जिनका कई बार बीमारी से कोई संबंध नहीं होता, उसे ज़रूरी बताया जाता है.उस पर ऐसा मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है कि वह अपने पास से या कहीं और से इंतज़ाम करके उतना पैसा ख़र्च करने पर मज़बूर हो जाता है जितना कमाने में शायद उसकी पूरी ज़िंदगी निकल चुकी होती है.

इस सब के बाद भी जिसका सफल इलाज हो जाता है, तो उसे भाग्यशाली मानते हैं अन्यथा, इसे जान और माल, दोनों पर ग्रहण लग जाना कहते हैं.

सरकारी अस्पतालों तो हालत और भी डरावनी है.यहां केवल आराम और वेतन की चिंता होती है, और न मिलने वाली सुविधाओं के विरोध में हड़ताल आदि करने की रणनीति तैयार होती रहती है.

यहां की व्यवस्था को देखकर समझ नहीं आता कि यह मरीज़ों के ठीक होने की जगह है या स्वास्थ्य के नाम पर और बीमार होने का सरकारी स्थान.अधमरे व्यक्ति की मौत तो यहां तय है.

लापरवाही और बदइंतज़ामी पर मुंह खोलना भी मरीज़ों पर भारी पड़ जाता है.

जहां मरीज़ों और उनके तीमारदारों के साथ बदतमीज़ी या बदसलूकी सामान्य बात है, उस स्थान को और वहां व्यवस्था में लगे लोगों को क्या कहा जाए?


ज़हरीली दवाइयां खिलाने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों को क्या कहा जाए?

मंदिर का तमगा लिए अस्पताल और भगवान के पद से सुशोभित डॉक्टर दवा के नाम पर लोगों को ज़हर खिला-पिला रहे हैं.इनसे नुकसान का आलम यह है कि पेट का इलाज कराओ, तो पीठ में समस्या खड़ी हो जाती है.डायबिटीज़ का इलाज कराओ, तो बीपी की समस्या और बीपी का इलाज कराओ, तो सांस में दिक्कत आ सकती है.दरअसल, ये अधिकांश एलोपैथी दवाइयां बीमारी को दूर नहीं करतीं, बल्कि कुछ देर के लिए रोककर दूसरी बीमारी पैदा कर देती हैं.

कुछ ही साल पहले की बात है.जस्टिस हाथी की अध्यक्षता में बने आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अस्पताल, डॉक्टर और फार्मा कंपनियों का काला सच उजागर किया था.उसने सरकार को बताया था कि केवल 117 दवाएं ज़रूरी है, जबकि 8 हज़ार 400 दवाएं ग़ैर-ज़रूरी हैं.यानि इन्हें बाज़ार में नहीं होना चाहिए था, जबकि मुनाफ़े के चक्कर में हमारे कुछ अस्पतालों और डॉक्टरों के सहयोग से विदेशीं कम्पनियां इन्हें भारत में सालों से बेच रही थीं.


आत्महत्या क्यों कर रहे हैं धरती के भगवान?

आत्महत्या एक अत्यंत दुखद घटना है.इसे सीधे व्यक्ति की सहनशक्ति से जोड़कर देखा जाता है.मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि एक मज़बूत इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति आत्महत्या नहीं करता, वह हालात से लड़ता है.मगर, वैसे लोगों के बारे में क्या कहा जाए, जो सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, भगवान बने बैठे हैं या भगवान समझे जाते हैं?

क्या भगवान भी कमज़ोर इच्छाशक्ति वाला होता है? सनातन हिन्दू धर्मशास्त्रों में तो ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता.

बहरहाल, नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी पर प्रकाशित लेख ‘सुसाइड अमंग इंडियन डॉक्टर्स’ के मुताबिक़, भारत में आम आदमी के मुक़ाबले ढाई (2.5) गुना ज़्यादा पाया गया है.

इस लेख में यह भी कहा गया है कि यहां पुरुष डॉक्टरों के मुक़ाबले महिला डॉक्टरों में आत्महत्या की घटनाएं ज़्यादा हैं तो वहीं, मेडिकल के छात्रों में भी इसकी तादाद कम नहीं है.

अब ज़रा सोचिए, धरती के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर ही आत्महत्या कर रहे हैं, तो उन पर श्रद्धा रखने वाले मरीज़ों के दिमाग़ पर इसका कितना बुरा असर होता होगा.यह बहुत ही गंभीर और चिंताजनक विषय है.

इस विषय पर जाने-माने मनोचिकित्सक डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं-

” डॉक्टरों को ख़ुद को भगवान मानना बंद करना होगा, तभी वे अपनी तकलीफ़ के बारे में खुलकर बात कर सकेंगें.अगर ऐसा नहीं करते, तो वे अंदर ही अंदर घुटते रहेंगें, और आत्महत्या की घटनाओं को टाला या कम नहीं किया जा सकेगा. “



इंडियन मेडिकल एसोसियेशन (IMA) की एक सर्वे में क़रीब 82.7 फ़ीसदी कलियुगी भगवान यानि डॉक्टर तनावग्रस्त पाए गए हैं.यह काफ़ी चिंताजनक है.इससे उनके कामकाज पर तो असर हो ही रहा है, सेहत के लिए भी ठीक नहीं है.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, कई डॉक्टर अब भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्विज्ञान का रुख़ कर रहे हैं और योग (जो कि आयुर्वेद से संबंधित ही वैदिक ज्ञान की एक शाखा है) के प्रयोग से समस्या से निजात पा रहे हैं.क्योंकि जान है तभी जहान भी है.न उससे पहले कुछ है, और न उसके बाद ही कुछ है.


नज़र का दोष है या विचारों में खोट?

बड़ी हैरानी होती है मेडिकल साइंस से जुड़े लोगों को देख-सुनकर जब वे भारतीय चिकित्सा पद्धति को कम आंकने और इसे नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं.ऐसा ईसाइयत के प्रभाव के कारण होता है मगर, सच को तो झुठलाया नहीं जा सकता, और न सबूतों को ही दफ़नाया जा सकता है क्योंकि वे प्राकृतिक और स्वाभाविक हैं.

आज की स्थिति देखें तो सुपरबग का शिकार एलोपैथी जहां अपने अंत की ओर बढ़ रहा है वहीं, आयुर्वेद तमाम झंझावातों से गुज़रने और उपेक्षित रहने के बाद भी जीवंत और शक्तिशाली है.इसका भविष्य सदैव उज्जवल है.
    
इसे आयुर्वेद का बढ़ता प्रभाव ही कहेंगें कि इसकी प्लास्टिक सर्जरी और क्षार सूत्र चिकित्सा को एलोपैथी ने अपना लिया है, और अब आधुनिक एलोपैथिक सर्जन भी इन विधियों से मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं.
             
और अंत में, रामायण-महाभारत में वर्णित वृतांतों के अनुसार, वैद्य सुषेन (जिन्होंने भगवान राम के भाई और शेषावतार लक्ष्मणजी का उपचार किया था) आदि ने अपनी आयुर्वेदिक विधा के बल पर प्राणों की रक्षा की थी, या जीवन दान दिए थे मगर, वे कभी भगवान कहलाना तो दूर भगवान के सामानांतर भी खड़े नहीं हुए.वे जहां कल थे, आज भी वहीं और उसी रूप में खड़े हैं, और सम्मानित हैं.इसके विपरीत भगवान का तमगा धारण किए एलोपैथिक डॉक्टर अविश्वास और संदेह की चादर में लिपटे अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं.
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