– 2011 की जनगणना में हेराफ़ेरी की जानकारी होते हुए भी, उसके आधार पर परिसीमन कराने को लेकर मोदी सरकार पर उठ रहे हैं सवाल
– मोदी सरकार पर आरोप है कि वह पिछले दरवाज़े से धारा 370 और 35ए फिर से बहाल कर रही है
– इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा का कहना है कि मोदी सरकार की ओर से पहले जम्मू-कश्मीर में डोमिसाइल क़ानून और अब 2011 की फ्रॉड और जाली जनगणना के आधार पर परिसीमन को थोपना, अलगाववाद आधारित सत्ता दोबारा क़ायम करने की क़वायद है
– हमें फिर उन्हीं हाथों में सौंपा जा रहा है, जिन्होंने पिछले 70 सालों में सत्ता में रहते हुए योजनाबद्ध तरीक़े से हमारा नरसंहार, शोषण और उत्पीड़न किया- इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा
धारा 370 और 35ए के ख़ात्मे के बाद नए जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक भविष्य तय करने के लिए परिसीमन की प्रक्रिया चल रही है.मगर इसका आधार क्या है? साल 2011 की जनगणना.ऐसा क्यों? जब देश के दूसरे राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों का परिसीमन 2021 की जनगणना के अनुसार किया जाना है, तो फिर इकलौते जम्मू-कश्मीर का परिसीमन 2011 की जनगणना के आधार पर क्यों किया जा रहा है? एक दवा जिसके साइड इफ़ेक्ट बड़े भयावह रहे हैं, और जो अब एक्सपायर भी हो चुकी है, उसका इस्तेमाल एक गंभीर बीमारी के इलाज़ के लिए क्यों किया जा रहा है? ऐसे ढ़ेरों सवाल हैं, जो आज देश के आम आदमी के सामने पहेली बने हुए हैं.मगर काल्पनिक मसलों पर भी सारा देश सिर पर उठा लेनेवाला हमारा तथाकथित बुद्धिजीवि वर्ग और सेक्यूलर मीडिया इस ज्वलंत और ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़े मुद्दे पर रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए है.इस बाबत जम्मू आधारित इक्कजुट जम्मू एक इकलौता राजनीतिक दल है, जो खुलकर सामने खड़ा है और हर स्तर पर इसका पुरजोर विरोध कर रहा है.उसका कहना है कि परिसीमन की प्रक्रिया का परिणाम पूर्वनियोजित है.मोदी सरकार का लक्ष्य दरअसल, जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद आधारित सत्ता को दोबारा क़ायम करना है.
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इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा,प्रधानंत्री मोदी और गुपकार गुट के नेता |
फ़िलहाल जो स्थिति है, उसके अनुसार अगले कुछ महीनों में परिसीमन प्रकिया पूरी कर आयोग अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंप देगा.उसके बाद क्या होगा? जानकार बताते हैं कि उसके बाद जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में 7 और सीटें जुड़कर कुल सीटें 90 हो जाएंगीं और फिर प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिलेगा, चुनाव होगा और आख़िरकार वहां सरकार बन जाएगी.
मगर सबसे बड़ा और मूल प्रश्न ये है कि मोदी सरकार के इन सारे प्रयोगों के फलस्वरूप क्या जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक स्तर पर और वहां की ज़मीनी हक़ीक़त में कोई बदलाव आएगा? इसके ज़वाब में अधिकांश लोगों, विचारकों और विशेषज्ञों की राय बिल्कुल अलग है.इनका मानना है कि इससे कोई सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद करना बेमानी होगा, बल्कि उसके उलट जो नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगें, भविष्य में उसकी क्षतिपूर्ति भी नहीं की जा सकेगी.इसके बाद तो वो सवाल भी दफ़न हो जाएगा, जिसमें किसी राष्ट्रवादी सरकार से अपेक्षा होती थी.
जम्मू-कश्मीर में नए कुर्ते के साथ पुराने पाजामे में वही लोग व्यवस्था में घुसकर मनमानी करेंगें और जम्मू को स्प्रिंगबोर्ड की तरह फ़िर से इस्तेमाल करेंगें, जो प्रदेश के पुनर्गठन के वक़्त नज़रबंद किए गए थे, ताकि उनकी वज़ह से वहां हालात न बिगड़ जाएं.
2011 की जनगणना के बारे में जनता से अगर उसकी राय पूछी जाए, तो अलगाववादी मानसिकता से ग्रस्त कुछ लोगों को छोडकर समूचा भारत एक स्वर में इसे नकार देगा.कई राजनीतिक विश्लेषकों की राय में, निकट भविष्य में जम्मू-कश्मीर में फिर से उठ खड़ी होनेवाली भ्रष्टाचार, अलगाववाद और आतंकवाद की समस्याओं के लिए उत्तरदायी यदि सबसे बड़ा कोई कारण होगा तो वो है 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान परिसीमन.
इक्कजुट जम्मू, जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन क़ानून 2019 में 2011 की जनगणना के इस्तेमाल के प्रावधान किए जाने के बाद से ही इसका विरोध कर रहा है और ये मांग कर रहा है कि 2021 की जनगणना के बाद और उसके आधार पर ही परिसीमन होना चाहिए.उसका कहना है कि 2011 की जनगणना के आधार पर ज़ारी परिसीमन की प्रक्रिया से ये साफ़ हो गया है सरकार की नीयत साफ़ नहीं है.
इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा कहते हैं-
” धारा 370 और 35ए के हटने के बाद पाकिस्तान और उसकी आईएसआई की ओर से भारत के खिलाफ़ कई स्तरों पर ज़ारी छद्म युद्ध में कमी देखने को मिली है.
अब किसी भी तरह गड़बड़ी पैदा कर घाटी को फिर से सुलगाने के षडयंत्र चल रहे हैं.विघटनकारी शक्तियां पुराने कश्मीर को दोबारा धरातल पर देखना चाहती हैं.मोदी सरकार भी उसी दिशा में प्रयासरत है.
पहले डोमिसाइल क़ानून और अब 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन को थोपकर 370 और 35ए को पिछले दरवाज़े से फिर से स्थापित किया जा रहा है.ऐसा लगता है कि अलगाववाद आधारित सत्ता दोबारा क़ायम करने की दिशा में मोदी सरकार पाकिस्तान और उसकी आईएसआई की बी-टीम की तरह काम कर रही है. ”
जहां राजनीति होगी वहां आरोप भी लगेंगें.मगर विरोध में उठ रही आवाज़ को समझते हुए उसका आकलन करना भी ज़रूरी होता है.यदि लगता है कि फ़ैसले में कोई कमी है, तो उसे बदलकर भूल सुधार कर लेने में ही सबकी भलाई है.
2011 की जनगणना आख़िर फ्रॉड और जाली कैसे है?
ज्ञात हो कि आज़ाद भारत में धारा 370 और 35ए की विवादित विशेष व्यवस्था और अपने अलग संविधान वाले (5 अगस्त 2019 से पहले) जम्मू-कश्मीर राज्य में 2011 की जनगणना आख़िरी जनगणना थी.इससे पहले केवल तीन बार (1961, 1981 और 2001 में ) और जनगणना हुई थी, जबकि वर्ष 1951, 1971 और 1991 में यहां कोई जनगणना नहीं हुई.सरकार औपचारिक रूप में, इनके अनुमानित आंकड़े प्रकाशित करती है.
अध्ययन और साक्ष्य बताते हैं कि केवल 2011 की जनगणना ही नहीं बल्कि तमाम अन्य जनगणना भी फ्रॉड और जाली थी.यहां हर बार, जनगणना सिर्फ़ और सिर्फ़ कागज़ों पर हुई, जिसमें राज्य और केंद्र, दोनों सरकारों की मिलीभगत से आंकड़ों में अंकगणितीय खेल और जुगाड़बाज़ी कर, उसके आधार पर तैयार की गई फ़र्ज़ी व्यवस्था में सत्ता केवल कश्मीर तक सीमित रखी गई.इस दौरान कश्मीरी मुसलमान शासक रहे और जम्मू के लोग उनके ग़ुलाम.
भेदभाव और साजिशों वाली व्यवस्था के तहत 2011 की जनगणना के साथ-साथ बाक़ी जनगणना भी कैसे फ्रॉड और जाली थी, यह गहराई से जानने के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य की जनगणना के इतिहास में झांकना होगा.
जम्मू-कश्मीर की जनगणना में फर्जीवाड़े का इतिहास
आज़ादी से पहले सन 1941 की जनगणना के अनुसार जम्मू क्षेत्र (संभाग) की आबादी कश्मीर संभाग से ज़्यादा थी.आंकड़ों के अनुसार, जम्मू की आबादी उस वक़्त क़रीब 20.01 लाख से ज़्यादा थी जबकि कश्मीर की आबादी तक़रीबन 17.29 लाख थी.
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जम्मू-कश्मीर (नक्शा- प्रतीकात्मक) |
1947 में बंटवारे के कारण जम्मू का कुछ हिस्सा पाकिस्तान में चला गया.लेकिन, उस हिस्से में रहने वाले बहुत सारे लोग, खासतौर से हिन्दू और सिख वहां से पलायन कर जम्मू आए और वहीँ बस गए.इनकी संख्या लाखों में है और इन्हें पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर शरणार्थी कहा जाता है.
पश्चिमी पाकिस्तान जैसे पंजाब से क्षेत्र भी कुछ शरणार्थी भी जम्मू ही आए और वहीँ बस गए.इसप्रकार, बंटवारे और अवैध क़ब्ज़े के कारण जम्मू की आबादी पर जो असर हुआ था, उसकी भरपाई हो गई थी और जम्मू क्षेत्र की आबादी अब भी कश्मीर संभाग की आबादी से ज़्यादा थी.
1951 में धारा 370 और 35ए आदि की विशेष व्यवस्था/विशेषाधिकारों के आधार पर जम्म-कश्मीर में व्यवस्था स्थापित करने/जुगाड़बाज़ी को लेकर अनिश्चितता अथवा व्यस्तता होने के कारण यहां जनगणना नहीं हुई/हो पाई.
आज़ाद भारत में जम्मू-कश्मीर में तत्कालीन जनगणना संचालन अधीक्षक एम एच कैमिली के नेतृत्व में पहली बार 1961 में जनगणना हुई.इस जनगणना के अनुसार, जम्मू संभाग की आबादी कश्मीर संभाग के मुक़ाबले ज़्यादा थी, जिसकी रिपोर्ट बाक़ायदा अधीक्षक कैमिली ने सरकार को सौंपी थी.
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एम एच कैमिली की प्रकाशित जनगणना रिपोर्ट का कवर पेज (प्रतीकात्मक) |
बताया जाता है कि यह रिपोर्ट जब जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री (उस समय जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री वहां का प्रधानमंत्री कहलाता था) बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद ने देखी तो वे आग़ बबूला हो गए.उन्होंने बाक़ायदा/आधिकारिक तौर पर कैमिली को बुलवाया और उन्हें फटकार लगाते हुए जनगणना रिपोर्ट के आंकड़ों को बदलने यानि रिपोर्ट में ग़लत तरीक़े से बदलाव कर, उसमें जम्मू संभाग की आबादी कम और कश्मीर संभाग की आबादी ज़्यादा दर्ज़ करने के लिए दबाव डाला.
जम्मू-कश्मीर के जनगणना संचालन अधीक्षक एम एच कैमिली ने जब बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद के अवैध आदेश को मानने और जनगणना के आंकड़ों में फर्जीवाड़ा करने से मना किया, तो उन्हें काफ़ी डराया धमकाया गया.
यह एक बहुचर्चित घटना है.
ख़ुद एम एच कैमिली ने कई लोगों के सामने इस घटना को क़बूल किया था, जिसका ज़िक्र कई लेखों, संस्मरणों में देखने को मिलता है.
बताया जाता है कि जम्मू-कश्मीर के उपरोक्त प्रशासनिक षडयंत्र और गुंडागर्दी में बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद के साथ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पूरा अमला भी शामिल था.
आख़िरकार, कैमिली को झुकना पड़ा और वह करना पड़ा, जो राज्य और केंद्र में बैठे लोग चाहते थे.जम्मू की आबादी को कागज़ों पर कम कर उसे दूसरे नंबर पर रखा गया, जबकि कश्मीर की आबादी को इसीप्रकार, बढ़ाकर उसे ‘नंबर एक’ पर दिखा दिया गया.
नंबरों की बाज़ीगरी का एक ही मक़सद था- जम्मू-कश्मीर राज्य की सत्ता कश्मीरी सुन्नी मुसलमानों के हाथों में रहे और वे शासक बनकर जम्मू संभाग पर एकक्षत्र राज करते हुए, हमेशा उसका दोहन और शोषण करते रहें.
बहरहाल ये बहुत बड़ा ‘जनसंख्या घोटाला’ था.1961 का ये जनसंख्या घोटाला दरअसल, आज़ाद भारत और जम्मू-कश्मीर के इतिहास का पहला और सबसे बड़ा ऐसा घोटाला था, जिसने जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक भविष्य ही बदलकर रख दिया.इसके बाद तो प्रदेश में 2019 से पहले हुई तमाम जनगणना (1981, 2001 और 2011 की जनगणना) में कभी वास्तविक/सही जनगणना नहीं हुई, सिर्फ़ और सिर्फ़ कागज़ों पर हेराफ़ेरी होती रही.
सन 1971 में, बांग्लादेश की आज़ादी को लेकर हुए भारत-पाक युद्ध के कारण, जनगणना नहीं हुई.
1981 में जनगणना हुई.मगर यह महज़ औपचारिकता थी और इसमें भी जनगणना के नाम पर फ़र्ज़ी आंकड़ों का ही सुविधाजनक जाल बुना गया.दरअसल, इसमें आंकड़ों को, 1961 के जनसंख्या घोटाले वाले आंकड़ों के आधार पर ही आगे बढ़ाया गया.
1991 में, कश्मीर में जिहाद/आतंकवाद और हिन्दुओं के क़त्लेआम को लेकर जो वहां हालात बने थे, उसके कारण वहां जनगणना नहीं हुई.
2001 और 2011 में भी जनगणना तो हुई लेकिन ये भी केवल औपचारिकता ही थी.इनमें भी वही हुआ, जो 1961 में और 1961 के फ़र्ज़ी आंकड़ों के आधार पर 1981 के आंकड़ों में हुआ था.
2011 की जनगणना के आंकड़ों में तो फर्ज़ीवाडा की अति हो गई थी.इसके आंकड़ों में जम्मू संभाग की आबादी को एकदम से 10 फ़ीसदी घटाकर जहां उसे बहुत नीचे पहुंचा दिया गया था, वहीँ कश्मीर की आबादी में 14 लाख की बढ़ोतरी कर दी गई थी, जो उस दौरान असंभव थी.
दोनों संभागों में कहां-कहां और कितना हुआ था फर्जीवाड़ा?
जम्मू-कश्मीर में जम्मू और कश्मीर, दो संभाग हैं.दोनों में 10-10 जिले हैं.जम्मू और कश्मीर, दोनों ही संभागों में जिलों की संख्या तो बराबर है, लेकिन वास्तव में जम्मू आकार/क्षेत्रफल के हिसाब से कश्मीर के मुक़ाबले बड़ा है.
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जम्मू-कश्मीर के जिले व क्षेत्रफल |
जम्मू संभाग की आबादी भी शुरू से ही कश्मीर संभाग से ज़्यादा रही है, और आज भी यहां आबादी ज़्यादा होने के कारण इस हिस्से में वोटरों की संख्या भी कश्मीर के वोटरों के मुक़ाबले अधिक है.यही कारण है कि मोदी सरकार यहां परिसीमन 2021 की जनगणना के पहले और 2011 की फ़र्ज़ी जनगणना के आधार पर ही करा लेना चाहती है, ताकि भेद न खुल जाए और जम्मू को उसका हक़ न देना पड़े.
जम्मू संभाग
जम्मू के साथ आज़ादी के बाद से ही छल होता रहा है, यह विभिन्न जिलों के जनसांख्यकीय आंकड़ों और जनगणना में साफ़ दिखाई देता है.मगर कागज़ों पर हेराफ़ेरी से धरातल की सच्चाई नहीं बदलती और सच उजागर हो ही जाता है.
गौरतलब है कि आंकड़ों में घोटालेबाज़ी हर जिले में होती रही, लेकिन संक्षेप में, हम यहां कुछ चुनिंदा जिलों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि के आंकड़ों की ही चर्चा कर रहे हैं.
जम्मू जिला
कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते और काठ की हांडी ज़्यादा देर भट्टी पर टिक नहीं पाती.ठीक इसी प्रकार हेराफ़ेरी कर तैयार की गई फ़र्ज़ी जनगणना रिपोर्ट भी ख़ुद ही अपनी खोलती नज़र आती हैं और झूठी साबित हो जाती हैं.
1961 से 1971 के बीच (यानि 1971 की अनुमानित/काल्पनिक जनगणना के अनुसार) जम्मू जिले की आबादी (दशकीय वृद्धि), जो 41.25% थी, उसे 1981 से 1991 के बीच (यानि 1991 की अनुमानित/काल्पनिक जनगणना के अनुसार) घटाकर 22.84% पर नीचे पहुंचा दिया/दिखाया गया.
1991 से 2001 के बीच जम्मू जिले का आंकड़ा 30.42% पर पहुंच जाता है.स्पष्ट दिखता है कि इस बार गणना में थोड़ी सावधानी बरती गई क्योंकि इस दौरान यहां की सामान्य वृद्धि के साथ-साथ यहां की आबादी में, कश्मीर से पलायन कर यहां आकर बसने वाले तक़रीबन 7-8 लाख लोगों की संख्या भी जुड़ गई थी.
इस प्रकार, हम देखते हैं कि इस बार (2001 की जनगणना में) जम्मू जिले की आबादी में क़रीब 8% की वृद्धि दर्ज़ होती है.मगर अब भी यह 41.25% के उस आंकड़े को नहीं छू सकी, जिसपर कैंची चलाकर/डंडी गुमाकर क़रीब 18% कम करते हुए सीधे 22.84% पर नीचे पहुंचा दिया गया था.
कठुआ जिला
कठुआ जिला शुरूआत से एक हिन्दू बहुल इलाक़ा रहा है.1941 में इस जिले में आनेवाली कठुआ, जसमेरगढ़ (अब हीरानगर) और बसोहली तहसीलों में क़रीब 73% हिन्दू रहते थे.आज भी यहां 90 फ़ीसदी से ज़्यादा हिन्दू और सिख रहते हैं.
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कठुआ जिले के लोग (प्रतीकात्मक) |
आंकड़ों के अनुसार, 1981 से 1991 (1991 की अनुमानित जनगणना के अनुसार) के बीच कठुआ जिले की आबादी 33.87% थी.1991 से 2001 (2001 की जनगणना के अनुसार) के बीच इसे घटाकर सीधे 20.91% पर नीचे पहुंचा दिया/दर्ज़ किया गया.
कश्मीर संभाग
कश्मीर संभाग में जम्मू संभाग के हमेशा विपरीत परिस्थितियां देखने को मिलती हैं.पिछले सात दशकों के दौरान यहां की जनगणना में विभिन्न जिलों में समय समय पर आंकड़ों में हेरफेर कर आबादी (दशकीय वृद्धि) तुलनात्मक रूप से ज़्यादा दर्ज़ की गई.इसका एकमात्र उद्देश्य उन अलगावादी कश्मीरी सुन्नी मुसलमानों के हाथों में हमेशा सत्ता को बनाए रखना रहा है, जो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान और आईएसआई के साथ मिलकर भारत से पूरी तरह अलग कर यहां इस्लामिक शासन स्थापित करना चाहते हैं.
मगर, चोरी को चाहे कितनी भी सफ़ाई से अंज़ाम दिया जाए, आख़िरकार, वह पकड़ी ही जाती है.
कश्मीर संभाग की आबादी के आंकड़ों में हेराफ़ेरी का घृणित कार्य दरअसल, समय समय पर हर जिले में हुआ/होता रहा, मगर संक्षेप में हम यहां कुछ चुनिन्दा जिलों की ही चर्चा कर रहे हैं.
कुपवाड़ा जिला
90 के दशक में कुपवाड़ा जिला सबसे ज़्यादा आतंकवाद/जिहाद प्रभावित क्षेत्र रहा था.उससे पहले 1961 में यहां की आबादी (वृद्धि) 26.34% दर्ज़ की गई थी.1991 में यह 27.51% थी.लेकिन 1991 से 2001 के बीच जब आतंकवाद/जिहाद चरम पर था, हजारों की संख्या में लोग मारे जा रहे थे और जन्म दर घट गया था, उस वक़्त यहां की आबादी को 27.51% से एकदम बढ़ाकर 38.59% (2001 की जनगणना के अनुसार) पर ऊपर पहुंचा दिया गया.
ऐसा लगता है मानो गणना कार्य में लगे लोगों की नज़र में कुपवाड़ा, इंसान, घरों-बस्तियों और तहसीलों से मिलकर बना कोई जिला नहीं बल्कि खेल का एक मैदान और वहां की आबादी गेंद हो, जिसे जीतने के जुनून में पूरी ताक़त से ऊपर उछाल दिया गया.
बारामूला जिला
90 के दशक में बारामूला जिले का हाल भी कुपवाड़ा जिले से बहुत बेहतर नहीं था.जिहादी हमलों से प्रभावित इस क्षेत्र का सामाजिक ताना बाना बिखर चुका था.काफ़ी संख्या में लोग अपनी जान बचाने के इधर-उधर छुपते फ़िर रहे थे, जिसका आबादी पर भी गहरा असर हुआ था.
बारामूला जिले में तमाम उथल-पुथल की स्थिति में भी आबादी की दशकीय वृद्धि यहां 1961 से लेकर 1991 के दौरान जो 25.89% से 32.70% तक की थी, उसमें, दो दशकों के दौरान यानि 1991-2001 और 2001-2011 के जनगणना काल (समयावधि) में तक़रीबन 18-19% की वृद्धि जोड़कर आंकड़े को क़रीब डेढ़ गुना तक बढ़ा दिया गया.
श्रीनगर
श्रीनगर जिले की आबादी में दशकीय वृद्धि में जो हेराफ़ेरी 1961 में हुई थी वह 1981 और 1991 में भी दुहराई गई. 1991 और 2001 के बीच यहां आबादी (वृद्धि) को 26% से बढ़ाकर सीधे 31.45% कर दिया गया.2011 में इसमें और उछाल आया.
जम्मू-कश्मीर में जनसांख्यकीय हेराफ़ेरी संबंधी ख़ास बातें
जम्मू संभाग के जिन जिलों में आबादी ज़्यादा थी, वहां जनगणना के नाम पर आंकड़ों में हर बार, हेराफ़ेरी होती रही और आबादी (वृद्धि) को लगातार घटाकर दिखाया जाता रहा.दूसरी तरफ़, कश्मीर संभाग में जहां पहले से ही आबादी कम थी, जन्म दर कम था, जहां नरसंहार हुआ और जहां से भारी संख्या में लोगों ने पलायन किया, वहां की आबादी को कागज़ों पर ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाकर दिखाया गया.
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जम्मू संभाग की आबादी के 2001 और 2011 के आंकड़े |
1971 से 2001 के बीच जम्मू संभाग की जो आबादी/औसत वृद्धि 31% थी, उसे 2011 में एकबारगी 10% तक लुढ़काकर सीधे 21% पर नीचे पहुंचा दिया गया.यह कोई सामान्य घटना नहीं थी.जबकि सामान्यतया किसी राज्य की आबादी में अचानक 10 फ़ीसदी की कमी आ जाती है, तो सरकार वहां जांच आयोग गठित कर देती है.आयोग ये जांच करता है है कि अचानक एक बड़ी संख्या में लोग कहां चले गए- वे किसी प्राकृतिक आपदा जैसे अकाल, महामारी या भूकंप के शिकार हो गए या फ़िर नरसंहार में मारे गए? मगर यहां, ऐसा कुछ नहीं हुआ, कहीं कोई सवाल नहीं उठा.
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कश्मीर घाटी संभाग के 2001 और 2011 के आंकड़े |
2002 में जम्मू संभाग में क़रीब 31 लाख वोटर थे, जबकि कश्मीर संभाग में वोटरों की संख्या महज़ तक़रीबन 28 लाख थी.इस प्रकार, जम्मू संभाग में कश्मीर संभाग की तुलना में तक़रीबन 2 लाख से भी ज़्यादा वोटर थे.इस संदर्भ में राजनीतिक अधिकारों की बाबत अपनी क़िताब में प्रमोद जैन ने सवाल उठाए, तो जम्मू-कश्मीर और देश के बाक़ी हिस्सों में यह बात फ़ैली और चर्चा का विषय बन गई.बावज़ूद इसके, सुधार करने के बजाय केंद्र और राज्य की सरकारों ने मिलकर एक नया तिकड़म रचा और 2011 की जनगणना के आंकड़ों में फिर यकायक कश्मीर संभाग की आबादी में 14 लाख की बढ़ोतरी दिखा दी गई.तिकड़मबाजों के पास अब तमाम झूठ पर पर्दा डालने का एक मज़बूत बहाना था.
चाहे काल्पनिक ही क्यों न हो, जिसकी आबादी ज़्यादा होगी उसके वोटर ज़्यादा होंगें और जिसके वोटर ज़्यादा होंगें उसी के हाथ में सत्ता होगी.इस प्रकार, एक झूठी व्यवस्था में सच की कोई औक़ात नहीं होती.
2011 की जनगणना में भी, फिर वही खेल हुआ और जम्मू-कश्मीर की कुल आबादी 1 करोड़ 22 लाख में, कश्मीर संभाग की आबादी 68,88,000 जबकि जम्मू संभाग की आबादी को महज़ 53,78,000 दिखाया गया.
2011 की जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में मुसलमानों की आबादी 4.27% बढ़ी है जबकि हिन्दुओं-सिखों की आबादी 4.24% की दर से घटी है.
जम्मू-कश्मीर में परिसीमन का इतिहास
2019 से पहले, जम्मू-कश्मीर में लोकसभा की सीटों का परिसीमन तो पूरे देश के साथ होता था, लेकिन विधानसभा सीटों का परिसीमन अलग से होता था.इसकी वज़ह थी धारा 370.दरअसल, जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के लागू होने के कारण राज्य की विधानसभा का परिसीमन, राज्य के संविधान के अनुसार तय होता था, जबकि लोकसभा की सीटों के परिसीमन के लिए भारतीय संविधन ही लागू होता था.
वर्तमान में चल रही परिसीमन की प्रक्रिया से पहले, जम्मू-कश्मीर में कुल तीन बार ही 1963, 1973 और 1995 में विधानसभा का परिसीमन हुआ है.उल्लेखनीय है कि साल 1995 में परिसीमन 1981 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर हुआ था क्योंकि प्रदेश में 1991 में जनगणना नहीं हुई थी.
2001 की जनगणना के बाद जम्मू-कश्मीर में कोई परिसीमन नहीं हुआ क्योंकि वहां की विधानसभा ने एक विशेष प्रस्ताव के द्वारा 2026 तक के लिए परिसीमन पर रोक लगा दी थी.
2011 की जनगणना पर निर्णय का औचित्य?
2011 की जनगणना के आधार पर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन का फ़ैसला किसी भी प्रकार से सही और न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है.इसके नफे-नुकसान के बारे में देश का हर नागरिक बखूबी जानता और समझता है.
अनज़ाने में कोई ग़लती हो जाए, नासमझी के कारण कोई अनुचित क़दम उठ जाए, तो वह समझ आता है और क्षम्य भी होता है.लेकिन, जानबूझकर और स्थापित आदर्शों/सिद्धांतों से समझौता करते हुए कोई अनुचित निर्णय कर उसे ज़बरन थोपने के कृत्य को केवल और केवल धोखा कहा जाता है, जो अक्षम्य होता है.यह स्वयं के लिए भी आत्मघाती होता है.
स्वहित कितना भी बड़ा हो, चांद और सूरज तक उड़ान भरने वाला हो, लेकिन राष्ट्रहित से बड़ा नहीं हो सकता क्योंकि राष्ट्र तो धरती पर है, और लौटकर यहीं आना है.फिर ऐसा क्या है, वो कौन-सी ऐसी ताक़त है. जो मौक़ा मिलते ही विजय को ज़फ़र और सेवक को ग़ुलाम बना देती है? सत्ता मिलते ही सोच बदल जाती है और लोग अपने ही सिद्धांतों और नीतियों से विमुख हो जाते हैं?
इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा कहते हैं-
” पिछले 70 सालों में भारत सरकार की जम्मू-कश्मीर को चलाने की नीति, जो अब नीति के प्रतिमान का रूप ले चुकी है, वह ऐसी है कि जम्मू-कश्मीर को यहां के मुसलमानों के हाथों में सत्ता सौंपकर ही, चलवाना है.
सरकार की इस सोच के पीछे की सोच ये है कि जम्मू-कश्मीर हिन्दू बहुल भारत में मुस्लिम बहुल राज्य है.अगर जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र का चेहरा मुसलमान है, लोकतंत्र को मुसलमान सफल बनाए, तो दुनियाभर में हम प्रशंसा के पात्र हो सकते हैं.सरकार के लिए यह भारतीय लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म की बहुत बड़ी जीत है.
अब ये कैसे सुनिश्चित किया जाए कि सत्ता यहां हमेशा मुसलमानों के हाथ में ही रहे, इसके लिए भारत सरकार तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही है, जिसमें कट्टर सुन्नी मुसलमानों के साथ मिलकर जनगणना में फर्जीवाड़ा करने का काम भी शामिल है.
मोदी सरकार भी कांगेस सरकार की नीति को आगे बढ़ाते हुए 2011 की फ्रॉड और जाली जनगणना के आधार पर परिसीमन के द्वारा सत्ता फिर से कश्मीरी अलगाववादियों/जिहादियों के हाथों में सौंपने का इंतज़ाम कर रही है. ”
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35ए का ख़ात्मा कर मोदी सरकार ने देश के भीतर मौज़ूद अलगाववादी ताक़तों और बाहरी दुश्मनों को कड़ा संदेश देते हुए, एक ऐसी नई शुरुआत की थी, जिससे कई सारी समस्याएं अपने आप ही मिट जातीं और राष्ट्र भी मज़बूत होता.मगर आगे बढ़ने के बजाय बहुत जल्दी क़दम पीछे खींच लिए गए.
इक्कजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा आगे कहते हैं-
” पहले डोमिसाइल क़ानून लाकर प्रदेश में एक दीवार खड़ी कर दी गई.फिर परिसीमन को लेकर वही पुराना तरीक़ा ले आए जो धारा 370 और 35ए के समय पिछले 70 सालों से अपनाते हुए जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक कट्टरवाद का पालन-पोषण और शक्तिवर्धन किया जाता रहा है.
दरअसल मोदी सरकार ये चाहती है कि प्रदेश की सत्ता केवल और केवल कश्मीरी मुसलमानों के हाथ में ही रहे और जम्मू के साथ नाइंसाफ़ी ज़ारी रहे.
फिर हमें उन्हीं हाथों में सौंपा जा रहा है, जिन्होंने पिछले 70 सालों में हमारा नरसंहार, शोषण और उत्पीड़न किया. ”
वैसे कश्मीर और कश्मीरी मुसलमानों के लिए केंद्र की दरियादिली और बाक़ियों के प्रति बेरुख़ी को लेकर हर तरफ़ विरोध व रोष है, लेकिन आवाज़ें कहीं दबकर रह जाती हैं.इशारों इशारों में अपने हक़ मांगे जाते हैं.
विश्थापित कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर भी जम्मू-कश्मीर में 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन कराए जाने का विरोध कर रहा है.
पनुन कश्मीर के अध्यक्ष अजय च्रुंगू कहते हैं-
” अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के ज्यादातर प्रावधान निरस्त किए जाने और इसे विभाजित कर दो केन्द्रशासित प्रदेश बनाने से जो सामाजिक और राजनीतिक लाभ मिला था, वह 2011 के आंकड़ों पर आधारित सीमांकन से व्यर्थ हो जाएगा. ”
कुल मिलाकर 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन के औचित्य पर सवाल ही नहीं है बल्कि इसकी प्रकिया के खिलाफ़ जो प्रतिक्रिया है, वह अपने आप में ही भविष्य के लिए बहुत कुछ कहानी बयान कर रही है.
2021 की जनगणना को बना सकते हैं परिसीमन का आधार?
मोदी सरकार की तरफ़ से तैयार किए गए जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 में 2011 की जनगणना को परिसीमन का आधार बना दिया गया था.
अधिनियम के प्रावधानों के तहत परिसीमन आयोग 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन कार्य के लिए बाध्य है.
परिसीमन आयोग भी स्पष्ट कर चुका है कि जनसंख्या ही परिसीमन प्रक्रिया का मापदंड है, जो 2011 की जनगणना के आधार पर तय होगी.यानि जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटों का परिसीमन वहां की 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही होगा.
मगर हक़ीक़त ये है कि परिसीमन में 2011 के आंकड़े, कश्मीर के पक्ष में जाते हैं.उसमें कश्मीर की जनसंख्या ज़्यादा है इसलिए सीटें भी उसे ज़्यादा मिलेंगीं और आख़िरकार सत्ता भी उसी के हाथों में होगी.
परिसीमन क़ानून 2002 की धारा 9 कहा गया है कि जनसंख्या ही परिसीमन का आधार होगी.ऐसे में, उचित और निष्पक्ष परिसीमन कराना है तो इसके आधार यानि 2011 की जनगणना की बाध्यता को ख़त्म कर वैकल्पिक रूप में 2021 की जनगणना यानि नए और सही जनसांख्यिकीय आंकड़े को आधार बनाना होगा.
2011 के बजाय 2021 की जनगणना को जम्मू-कश्मीर के परिसीमन का आधार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 की धाराओं 62, 63, 14 और उपधारा 7 को बाक़ायदा संसद द्वारा संशोधित कराना होगा.
विडंबना ये है कि दशकों गर्दिशों में फिरने के बाद एक बार फिर जम्मू-कश्मीर के भाग्य के निर्धारण का वक़्त आया तो उसमें भी ग्रहण लग गया है.किसी ज्योतिषी की नज़र में यह ग्रह-राशियों का उल्टा-पुल्टा होना हो सकता है, पर मुझे साफ़ नज़र आ रहा है कि यह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक महत्वकांक्षी और शैतानी दिमाग की ख़ुराफ़ात है, जो सत्ता की भूख पर आधारित अपने तात्कालिक लाभ के लिए दशकों से संत्रास, कुंठा और घुटन में ज़िंदगी बसर करते लोगों में एक उम्मीद जगाने का नाटक कर, उन्हें वापस अंधी खाई में धकेल देने की पूरी तैयारी कर चुका है.
डोमिसाइल क़ानून लाया गया, ताकि घाटी में पहले वाली स्थिति दोबारा बहाल हो सके, जिहादी सल्तनत बरक़रार रहे.
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डोमिसाइल क़ानून का नोटिफिकेशन पत्र |
डोमिसाइल क़ानून के ज़रिए घाटी को एक बार फिर शेष भारत से काट दिया गया है.यह भारत के अंदर एक पाकिस्तान को दोबारा जिन्दा करने की कोशिश है.
अब 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन, देश का भला चाहनेवाला कोई भी व्यक्ति हज़म नहीं कर पाएगा .ऐसा लगता है कि व्यक्ति और उसकी वास्तविकता पहचानने-समझने में भूल हुई है.
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