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ईसाइयत

ईसाइयत का प्रचार:धर्म का विस्तार या अस्तित्व बचाने की क़वायद ?

आपने गली-मोहल्लों,चौक-चौराहों,सड़कों,बाज़ारों और पार्कों में कंधे पर थैला टाँगे तथा हाथों में पतली-पतली किताबें व पर्चे लिए घूमते हुए कुछ लोग देखे होंगें.उन्होंने आपको टोका होगा और आपसे बात करने की कोशिश भी की भी की होगी.आपने उनसे आत्मा-परमात्मा,यीशु,परमेश्वर-पुत्र और परमेश्वर आदि की चर्चा सुनी होगी.आप हैरान हुए होंगें और मन में सवाल उठा होगा कि आख़िर कौन हैं ये अज़नबी जो अचानक आ धमकते हैं और फ़ेरीवालों की तरह तबतक आपका पीछा नहीं छोड़ते जबतक आप उन्हें झिड़क नहीं देते.ऐसे में आपको और भी हैरानी होगी ये जानकार की ये अज़ीबोग़रीब लोग कोई और नहीं बल्कि ईसाई धर्मप्रचारक हैं जो ईसा मसीह के जीवन व उपदेशों का प्रचार कर ईसाई बनने की प्रेरणा देते हैं.लेकिन धर्म-कर्म की बातें तो धर्मस्थानों में होती हैं,फ़िर क्यों ये सड़कों,बाज़ारों,पार्कों और मनोरंजन के स्थानों पर लोगों से संपर्क कर उनसे जुड़ने का प्रयत्न करते हैं? संपर्क व प्रवचन का ये तरीक़ा अज़ीब नहीं? निश्चय ही ये तरीक़ा अज़ीबोग़रीब है और साथ ही घटिया भी जिसे ईसाइयत का विज्ञापन या मार्केटिंग कह सकते हैं.

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
धर्मप्रचार का अनोखा तरीक़ा :पार्क में मज़मा लगा उपदेश देते ईसाई धर्मप्रचारक 

अब सवाल उठता है कि दो हज़ार साल पुरानी तथा दुनियाभर में फ़ैली ईसाइयत को क्यों इतने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं? ऐसी क्या मज़बूरी है कि स्कूलों-अस्पतालों,झुग्गी-झोपड़ियों और आदिवासी बस्तियों में महंत बने और कुंडली मारकर बैठे लोगों को अब सड़कों पर उतरना पड़ रहा है? हैरानी की बात ये भी है कि ईसाई मिशनरियों की ये हालत भारत तक ही सीमित नहीं है.इनके यही क्रियाकलाप और टिड्डी दलों जैसी सक्रियता मुस्लिम देशों को छोड़कर अधिकाँश एशियाई-अफ़्रीकी देशों में कमोबेश देखने को मिलती है.इसके कारण क्या हैं ये समझने के लिए हमें विभिन्न पहलुओं पर विचार करना होगा तथा विभिन्न शोधों पर आधारित आंकड़ों और तथ्यात्मक रिपोर्टों के हवाले से वास्तविकता को परखना होगा ताकि कहीं किसी संदेह की गुंजाईश ना रहे और साथ ही सच भी उजागर हो सके.

अध्ययन बताता है कि ईसाइयत वैश्विक स्तर पर तो बढ़ रही है मगर यूरोप और अमरीका में लगातार घट रही है.ग़ौरतलब है कि कभी यूरोप और अमरीका ईसाइयत के गढ़ हुआ करते थे जहाँ से दुनियाभर में इनकी तूती बोलती थी और यहीं से तैयार रणनीति व मानदंड के तहत शेष विश्व में प्रचार-प्रसार होता था.लेकिन तमाम रिपोर्ट और उनके आंकड़े बताते हैं कि ईसाइयत के मानक रहे इन देशों में ही हालत चिंताजनक हो चली है.बुनियाद कमज़ोर हो चुकी है और क़िले ढ़हने की ओर अग्रसर हैं.ब्रिटेन यानि इंग्लैंड की हालत भी इनसे अलग़ नहीं है.लेकिन,जब हम एशिया और अफ़्रीकी देशों को देखते हैं तो स्थिति कुछ और ही नज़र आती है.वहां मसीही लगातार बढ़ रहे हैं तथा मज़बूत हो रहे हैं,जिसे विस्तार से समझने की ज़रूरत है.       


    

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
अफ़्रीकी देशों में ग़रीब व मज़बूर लोगों की मदद के नाम पर धर्मपरिवर्तन का मायाजाल 

 

यूरोप व अमरीका के आंकड़ों का विश्लेषण:

विश्वप्रसिद्ध ईडनबर्ग यूनिवर्सिटी प्रेस के आंकड़ों से ये खुलासा होता है कि पिछले एक सौ साल के भीतर यूरोप अमरीका में ईसाईयों की संख्या में काफ़ी बदलाव आए हैं.1910 से 2010 तक के आंकड़ों में हम देखते हैं कि यहाँ ईसाईयों की संख्या लगातार घट रही है.1910 में यूरोप में ईसाई 66 % थे यानि हर तीन में से दो लोग स्वयं को ईसाई मानते थे.उत्तरी अमेरिका में 15 फ़ीसदी लोग अपने आपको ईसाई मानते थे.लैटिन अमेरिका यानि दक्षिण अमेरिका में 12.2 फ़ीसदी लोग ईसाई थे और बाक़ी दुनिया में कुल 4.1% ईसाई जहाँ-तहाँ बिखरे हुए थे.लेकिन 2010 में यानि 100 साल के अंदर ये हालात बिलकुल बदल जाते हैं.सबसे ख़राब हालत अब यूरोप की है जहाँ सिर्फ़ 25 फ़ीसद लोग ही ख़ुदको मसीही यानि ईसाई मानते हैं.यहाँ हर चार में से केवल एक व्यक्ति ही ईसाई रह गया है.नार्थ अमेरिका में जहाँ 15 फ़ीसदी थे,घटकर वो लगभग 12 फीसदी रह गए हैं.पर बढ़ोतरी कहाँ हुई है ये जब हम देखते हैं तो पता चलता है कि एशिया में जहाँ पहले नाममात्र के ईसाई थे वहां इनकी संख्या बढ़कर 15 पर्सेंट से ज़्यादा हो गयी है.अफ़्रीका में भी जहाँ पहले गिने-चुने ईसाई देखने को मिलते थे अब वहां उनकी सख्या 21% से भी बढ़ चुकी है.लैटिन अमेरिका यानि साउथ अमेरिका में जहाँ ये महज़ 12 फ़ीसदी थे वहां इनकी संख्या तक़रीबन दुगनी होकर 24 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी है.



धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
100 सालों में दुनिया में बदल गए ईसाइयत के आंकड़े 

 

अमरीका में चर्च जानेवाले लोगों की संख्या का विश्लेषण:  

अमरीका में ईसाईयों की स्थिति हम वहां चर्च जानेवाले लोगों की संख्या के आधार पर भी जान सकते हैं.आइए हम इसे एक ग्राफ द्वारा समझने की कोशिश करते हैं.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
60 वर्षों के दौरान अमरीकी ईसाईयों का गिरता ग्राफ़ 


उपरोक्त ग्राफ में 1952 से लेकर 2012 तक यानि 60 वर्षों के आंकड़े दर्शाए गए हैं जिससे ये साफ़ हो जाता है कि अमेरिका में चर्च जानेवाले लोगों की संख्या में आश्चर्यजनक गिरावट आयी है.अब हम एक दूसरे और थोड़े नए ग्राफ में दर्शाए गए आंकड़ों पर नज़र डालते हैं.
                       

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
20 वर्षों के दौरान अमरीकी चर्चों में उपस्थिति के आंकड़े 

इसमें हमें पता चलता है कि 1994 में चर्च जानेवाले 62% लोग थे जो 2014 में घटकर 53% रह गए.इसका मतलब ये है कि 20 वर्षों के दौरान अमेरिकी चर्चों में ईसाईयों की उपस्थिति में 9 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज़ की गई जो हैरान करने वाली तथा चिंताजनक है.

इंग्लैंड में ईसाई धर्म का हाल:

 

आइए अब इंग्लैंड में भी ईसाइयत का हाल जानने के लिए हम एक ग्राफ़ का सहारा लेते हैं जिसे हमने  तैयार नहीं किया है बल्कि ये ब्रिटिश सोशल ऐटिटूड सर्वे की रिपोर्ट पर आधारित ग्राफ है.इसमें 1983 से लेकर 2011 के बीच यानि 28 साल के आंकड़े दर्शाये गए हैं. 

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
28 वर्षों के दौरान इंग्लैंड में ईसाईयों के बदलते आंकड़े 


यहाँ हम काली रेखा को देखते हैं तो पता चलता है कि जो No Religion(नो रिलिजन) हैं यानि जो किसी धर्म को नहीं मानते उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.1983 में जिनकी आबादी 32 फ़ीसदी थी वो 2009-10 में बढ़कर 50 फीसदी को पार कर चुकी है.अब ईसाइयत के हम अगर विभिन्न मतों की बात करें तो उसमें Anglican(एंग्लिकन) यानि इंग्लैंड के चर्च से जुड़े ईसाईयों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज़ की गई है.वो 40 पर्सेंट से सीधे 20 पर्सेंट पर आ पहुंचे हैं.जो Non Christian (नॉन क्रिस्चियन)यानि ग़ैर ईसाई हैं उनमें कुछ तो मुसलमान हैं जबकि बाक़ी हिन्दू और अन्य धर्मों के लोग हैं,उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है.रोमन कैथलिक मत वाले भी घट रहे हैं.वो 10% से घटकर निचे आ गए हैं.

यूरोप,अमेरिका और इंग्लैंड में ईसाईयों के गिरते ग्राफ़ के मायने:

इसके जो मायने हैं वो बिल्कुल साफ़ हैं और वो ये हैं कि जो विकसित देश हैं जहाँ शिक्षा है,रोज़गार है, ख़ुशहाली है वहां पर तो ईसाईयों का ग्राफ़ गिरता जा रहा है लेकिन जहाँ पर अशिक्षा है,बेरोज़गारी है,कंगाली है वहां पर आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं.अब यहाँ समझने की ज़रूरत है और बहुत महत्वपूर्ण भी ये है कि जब यूरोप,अमेरिका और इंग्लैंड में आंकड़ा कम हो रहा है तो जिन ईसाई मिशनरियों की दुकानदारी ईसाइयत पर चलती है उनके लिए यहाँ घाटे का मामला है.उन्हें अपनी रोज़ी-रोटी के लिए वैकल्पिक स्थान,अपने प्रोडक्ट और ब्रांड के लिए नए ग्राहक की तलाश ज़रुरी है.और वो ये  बख़ूबी समझते हैं कि जहाँ ग़रीबी,लाचारी और भूखमरी है वहां टारगेट कर अगर धावा बोलते हैं तो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बेवक़ूफ़ बना सकते हैं,जो आसान भी है.बेवक़ूफ़ बनाने से मेरा मतलब यहाँ हमारी तार्किक क्षमता से है जिसकी कमी देखने को मिल रही है.हमारी दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली के कारण यहाँ अच्छे पढ़े-लिखे लोगों में भी तर्कशक्ति विकसित नहीं हो पाती जबकि अमरीका व यूरोपीय देशों का शिक्षित व्यक्ति सही मायने में तर्क व विश्लेषण की क्षमता रखता है.

ईसाइयत  के गढ़ में ही ईसा मसीह पर यक़ीन नहीं:

अध्ययन व हालिया रिपोर्टों से हमें ये जानकारी मिलती है कि यूरोप,अमरीका तथा इंग्लैंड के अधिकाँश लोग सुनी-सुनाई तथा मनगढंत बातों को आँख मूंदकर मान लेने की बजाय उसपर तर्क कर सच-झूठ में फ़र्क़ करने पर ज़्यादा यक़ीन रखते हैं.आपको ये जानकर हैरानी होगी कि यहाँ के अधिकाँश विश्वविद्यालय इस बात से इंकार करते हैं कि यीशु नामक कोई व्यक्ति कभी अस्तित्व में था.वो उसके चमत्कारों व मान्यताओं पर भरोसा नहीं करते.वो ये नहीं मानते कि दुनिया का राजा(तथाकथित) यीशु लौटकर आएगा तथा कायापलट कर इंसाफ़ करेगा.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
ईसा मसीह के पुनरागमन का सांकेतिक चित्र


तो क्या सच में ऐसी कोई बात है जो भरोसे के क़ाबिल नहीं तथा विवादस्पद है? और यदि ऐसा है तो लाज़िमी है सवालों का उठना,जिसपर चर्चा होनी चाहिए.आलोचकों का कहना है कि बार-बार संशोधित बाइबल में कई ऐसे प्रसंग हैं जो परस्पर विरोधी है और स्वयं ही विवाद पैदा कर यीशु के जीवन-दर्शन अविश्वसनीय बना देते हैं.और शायद यही कारण है कि ईसाई मतावलंबी भी एक राय नहीं रखते तथा विभिन्न मतों में बंटे हुए हैं.परन्तु क्या हैं वो विवादित मुद्दे तथा उनपर बाइबल का नजरिया,उनका निष्पक्ष एवं तथ्यात्मक विश्लेषण कर आइये हम पता लगाने की कोशिश करते हैं कि सच क्या है और झूठ क्या है.वो मुख्य विषय-वस्तु जो चर्चा के केंद्र में रहते हैं,इसप्रकार हैं-  
                             

1. यीशु के दादा का नाम कहीं पर याक़ूब तो कहीं पर एली:           

बाइबल के मुताबिक ईश्वर ने यीशु के चार चेलों मैथ्यू उर्फ़ मत्ती,मार्क़ उर्फ़ मरकुस,ल्यूक उर्फ़ लूका तथा जॉन उर्फ़ यूहन्ना को प्रेरित किया और उसकी प्रेरणा से गॉस्पेल अथवा सुसमाचार लिखे गए हैं जिनमें झूठ की रत्तीभर भी गुंज़ाइश नहीं है और वो अकाट्य हैं.ऐसे में जब हम यीशु के पूर्वजों को जानने का प्रयास करते हैं तो पाते हैं कि मरकुस तथा यूहन्ना के सुसमाचारों में तो इसका कोई ज़िक़्र नहीं है लेकिन मत्ती तथा लूका के सुसमाचारों में जो वर्णन मिलते हैं वो भी आपस में मेल नहीं खाते.यहाँ तक कि यीशु के दादा का नाम दोनों में अलग-अलग बताया गया है.मत्ती के मुताबिक़ यीशु का दादा याक़ूब था जबकि लूका एली को यीशु का दादा बताता है.है ना विचित्र बात? चलिए सबूत के तौर पर मत्ती का सुसमाचार देखते हैं.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
मत्ती रचित सुसमाचार (आयत संख्या-16 ) में यीशु के दादा का नाम याक़ूब 


यहाँ अब्राहम से लेकर यीशु तक 39 पूर्वजों का ज़िक़्र है.इसमें 16 नंबर पर मत्ती बताता है-16 और याकूब से यूसुफ उत्पन्न हुआ; जो मरियम का पति था जिस से यीशु जो मसीह कहलाता है उत्पन्न हुआ॥

आइये अब हम लूका का सुसमाचार देखते हैं कि इसमें यीशु के दादा की क्या चर्चा है-


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
लूका का सुसमाचार(यूसुफ की वंशावली :आयत संख्या-23 ) में यीशु के दादा का नाम एली 


यहाँ भी अब्राहम से लेकर यीशु तक के पूर्वजों का वर्णन है लेकिन इसमें उनकी संख्या बढ़कर 52 हो जाती है.अब ये बाइबल के ईश्वर की ग़लती है या फ़िर लूका भटक गया लगता है.ख़ैर,जहाँ तक यीशु के दादा का प्रश्न है तो लूका बताता है-23 यीशु ने जब अपना सेवा कार्य आरम्भ किया तो वह लगभग तीस वर्ष का था। ऐसा सोचा गया कि वह

एली के बेटे यूसुफ का पुत्र था।


यहाँ यीशु के पिता यूसुफ को एली का पुत्र बताया गया है.मत्लब यीशु का दादा अब एली(यूसुफ का पिता) है जो मत्ती वाली वर्णित वंशावली में याक़ूब था.अज़ीब बात है कि यीशु के चार चेले जो साथ रहते थे,सबकुछ जानते थे और ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया फ़िर भी इतनी बड़ी ग़लती हो गई.

इसीप्रकार,एक और ख़ास बात है जिसका ज़िक़्र और ख़ुलासा ज़रूरी है.ईसाई मिशनरियां बार-बार डेविड अथवा दाउद का नाम लेती हैं.ऐसे में जब हम मत्ती की वंशावली में दाउद से शुरु करते हैं तो यीशु का नाम 27 वें नंबर पर आता है जबकि लूका वाले वर्णन में यीशु 42 वें नंबर पर पहुँच जाता है.ग़ौरतलब है कि चार में से दो सुसमाचार तो यीशु के पूर्वजों के बारे में बताते ही नहीं हैं लेकिन जो दो सुसमाचार बताते भी हैं उनमें भी नामों का मिलान नहीं होता.पहले 6 नाम तो मिलते हैं लेकिन उसके बाद नाम बदलने शुरु हो जाते हैं,कुछ आगे-पीछे हो जाते हैं और जब हम आगे चलते हैं तो नाम भी मिलने बंद हो जाते हैं.साथ ही,अंत आते-आते मत्ती वाले में यीशु आ जाता है लेकिन लूका में चूँकि पूर्वज ज़्यादा हैं इसलिए सूची लंबी होती जाती है और यीशु बहुत बाद में नज़र आता है.प्रमाण देखिए-                   

 
 
ल्युक                                                मैथ्यू
अब्राहम                                              अब्राहम
इसाक                                                 इसाक
जेकब                                                 जुडास
जुड़ा                                                   फेयर्स
फेयर्स                                                 एस्रौम
एस्रौम                                                 एरम
एरम                                                  अमिनादाब
अमिनादाब                                           नासौन
नासौन                                                साल्मौन
साल्मौन                                               बूज़
बूज़                                                     ओबैद
ओबैद                                                  जैसी
जैसी                                                    राजा डेविड
राजा डेविड                                            सोलोमन
नाथन                                                  रोबोआम
मत्ताथा                                                 अबिया
मेनन                                                   असा
मेलेया                                                  जोसाफत
एलिअकिम                                           जोरम
जोनान                                                 ओज़िअस
जोसेफ                                                 जोआथम
जुड़ा                                                     अकाज़
सिमिओन                                             एज़ेकियास
लेवी                                                     मनासेस
मत्थात                                                 आमोन
जोरिम                                                  जोसिआस
एलिएज़र                                              जेकोनिआस
जोसे                                                    सलाथिअल
एर                                                       ज़ोरोबबेल
एल्मोदम                                               अबियुड
कोसाम                                                  एलिआकिम
अड्डी                                                    अज़ोर
मेल्की                                                    सैदौक
नेरी                                                       अचिम
सलाथिअल                                             इलियड
ज़ोरोबबेल                                               एलिआज़र
रहेज़ा                                                     मत्थान
जोआना                                                  जेकब/याक़ूब 
जुड़ा                                                       जोसेफ/यूसुफ 
जोसेफ                                                   जीसस (जो यीशु अथवा ईसा मसीह कहलाया )
सेमेयी
मत्तथिआस
माठ
नग्गे
एसलि
नौम
अमोस
मत्तथिआस
जोसेफ
जन्ना
मेल्की
लेवी
मत्थात
हेली/एली
जोसेफ/यूसुफ
जीसस (जो यीशु अथवा ईसा मसीह कहलाया )
 
 

इसमें ये साफ़ है कि मत्ती में दाउद तथा यीशु के बीच आनेवाले 26 नामों में से सिर्फ़ चार ऐसे हैं जो लूका में भी आते हैं.तीन ऐसे हैं जिनके नाम मिलते-जुलते हैं और जो नाम दोनों में समान भी हैं उनका क्रम मेल नहीं खाता. 

2. यीशु के जन्म और जन्मस्थान पर विवाद:  

यीशु का जन्म वास्तव में कब हुआ था और कहाँ यानि किस स्थान पर हुआ था,इसपर विद्वानों में एकमत नहीं है.समय-समय पर अलग-अलग लोगों ने भिन्न-भिन्न दावे किए हैं,जिनकी चर्चा ज़रूरी है.आइए पहले उनके जन्म से सम्बंधित विभिन्न विचारों का अवलोकन करते हैं फ़िर,जन्मस्थान की चर्चा करेंगे. 

यीशु का जन्म-काल:

बाइबल में यीशु के जन्म की कोई तारीख़ दर्ज़ नहीं है इसलिए यीशु के चेलों द्वारा वर्णित प्रसंगों,न्यू कैथोलिक इनसाइक्लोपीडिया,इनसाइक्लोपीडिया ऑफ अरली क्रिस्चियानिटी और कुछ अन्य विद्वानों की राय के आधार पर यीशु के जन्मकाल को समझा जा सकता है.हम देखते हैं कि सम्राट ऑगस्तुस द्वारा ज़ारी आदेश जिसमें रोमन साम्राज्य के सभी निवासियों को अपने-अपने शहरों में अपना नाम दर्ज़ करवाना था(लूका 2:1-3 ),की चर्चा है,उससे लगता है कि ये कड़ाके की सर्दी(25 दिसंबर-क्रिसमस ) का वक़्त नहीं रहा होगा.साथ ही उक्त आदेश का मत्लब शायद कर वसूली अथवा सेना में भर्ती का रहा होगा इसलिए ऐसा नहीं लगता कि ऑगस्तुस ने अपने आदेश के लिए ऐसे मौसम का चुनाव किया होगा कि जिसमें सभी लोगों को ठिठुरते हुए लंबी दूरी तय करनी पड़े.ऐसा होने पर लोग भड़क जाते और रोमन साम्राज्य के ख़िलाफ़ विद्रोह भी कर सकते थे.  


       

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
चरनी में बालक यीशु के दर्शन करते श्रद्धालु 


कुछ जानकारों के अनुसार,यीशु का जन्म वसंत ऋतु में हुआ था.उनके मुताबिक,क्योंकि यीशु के जन्म के समय गड़रिये खुले मैदान (जहाँ स्वर्गदूत ने सुसमाचार सुनाया ) में अपने भेड़ों के झुंडों की देखरेख कर रहे थे(लूका 2:8डेली लाइफ इन द टाइम ऑफ जीसस  ),इसलिए ये वक़्त सर्दियों का नहीं बल्कि फ़सह के एक हफ़्ते पहले यानि मार्च के मध्य से लेकर नवंबर के मध्य तक का रहा होगा.उनका मानना है कि उस वक़्त अगर दिसंबर वाली कड़ाके की ठंढ़ होती तो गड़रिये खुले मैदान की जगह गुफ़ा में पनाह लिए होते.ये दलील भी विचारयोग्य है कि अगर गड़रिये मैथुन काल के दौरान भेड़ों की देखभाल कर रहे होते तो वो उन भेड़ों को झुंड से अलग कर रहे होते जो समागम कर चुकी होतीं.ऐसा होता तो ये पतझड़ का मौसम होता.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
शेफर्ड्स फील्ड में चरवाहों को यीशु के जन्म का सुसमाचार सुनाता स्वर्गदूत 

        

कुछ विद्वान यीशु की मौत के समय के आधार पर उनके जन्म के समय का आकलन करते हैं.उनके अनुसार,यीशु की मौत 33 ईस्वी के वसंत में नीसान 14 को यानि फ़सह के दिन (यूहन्‍ना 19:14-26 )हुई थी.इससे पहले उसने जब अपने 3 साल के धर्मप्रचार-कार्य की शुरुआत (लूका 3:23 ) की तो वह 30 साल का था.इस तरह उसका जन्म ईसा पूर्व 2 के पतझड़ मौसम की शुरुआत में मुमकिन है.फ़िर तो यहाँ 25 दिसंबर को क्रिसमस के त्यौहार की मान्यता की धज्जियाँ उड़ जाती हैं.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
33 ईस्वी के नीसान 14 (फ़सह के दिन ) को क्रूस पर लटके यीशु 

    
कुछ शोधकर्ता व विशेषज्ञों की राय में,25 दिसंबर ईसा मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्मतिथि नहीं है और इस तिथि को एक रोमन पर्व पैगन( अजेय सूर्य का जन्मदिन मनाने की परंपरा ) या मकर संक्रांति (शीत अयनांत ) से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए चुना गया है ताकि मसीही धर्म अपनाने वाले ग़ैर ईसाईयों को मसीही धर्म ज़्यादा आकर्षक लगे.वैसे भी 25 दिसंबर रोमन कैथलिक और प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों की पारंपरिक तारीख़ है लेकिन ग्रीक,कॉप्टिक और सीरियाई रूढ़िवादी ईसाई 6 जनवरी को तो आर्मेनियाई रूढ़िवादी ईसाई 19 जनवरी को क्रिसमस मनाते हैं.बेतलहम में अधिकाँश क्रिसमस जुलूस गिरजाघर के सामने स्थित मेंज़र स्क्वायर से होकर गुज़रते हैं तो रोमन कैथलिक संत कैथरीन गिरजाघर में और प्रोटेस्टैंट चरवाहों के मैदान (शेफर्ड्स फील्ड ) में क्रिसमस मनाते हैं.  

 

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
बेतलहम में मेंज़र स्क्वायर से होकर गुज़रता क्रिसमस जुलूस

यीशु का जन्मस्थान:

यीशु का जन्मस्थान भी विवादों से घिरा है.सबसे पहले तो बेतलहम का वो भवन,जिसमें यीशु के माता-पिता यूसुफ तथा मरियम ठहरे थे,ये स्पष्ट नहीं है कि वह घोड़ों का अस्तबल था,या गोशाला था या फ़िर भेड़शाला.दूसरे,बेतलहम भी दो बताये जाते हैं.इन दोनों ही मसलों पर अलग़-अलग़ राय है यानि जितने मुँह उतनी बातें.कुछ विद्वानों का मत है कि यीशु का जन्म एक कोठार यानि गोशाले में हुआ था जहाँ कृषि-पशु रखे जाते थे.कुछ दूसरे जानकार बताते हैं कि ये स्थान घोड़ों का अस्तबल था जबकि तीसरी विचारधारा के लोग भेड़शाला को जन्मस्थली बताते हुए एक बिलकुल अलग़ ही राय रखते हैं.वो यीशु के जन्म को बलि दिए जानेवाले भेड़ों के जन्म के साथ जोड़कर देखते हैं.उनके मुताबिक,यहाँ मंदिर की आधिकारिक भेड़शाला थी जिसमें फ़सह के मेमने जन्म लेते थे तथा परमेश्वर का पुत्र यीशु भी जैसे परमेश्वर का एक मेमना था;जिसके जन्म का उद्देश्य अपने लोगों के लिए बलिदान देना था. 


       

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
बेतलहम स्थित गोशाला अथवा भेड़शाला जहाँ यीशु का जन्म हुआ 

आज का बेतलहम (फ़लीस्तीनी शहर) इज़रायल की राजधानी येरुशलम से 10 किलोमीटर दूर सेंट्रल वेस्ट बैंक में स्थित है.यहाँ मौज़ूदा वक़्त में स्थित चर्च ऑफ़ नेटिविटी को ही ईसा मसीह का जन्मस्थान माना जाता है,जिसे हाउस ऑफ़ ब्रेड भी कहते हैं.ईसाई पक्षसमर्थक जस्टिन मार्टियर के अनुसार,इसे पहले ईसाई रोमन सम्राट कॉन्स्टैन्टिन और उनकी माँ हेलेना द्वारा 327 में बनवाया गया था.लेकिन यहूदी और अधिकाँश मसीही लोगों की मान्यताओं पर यदि ग़ौर करें तो पता चलता है कि नाज़रत के पास स्थित बेतलहम में यीशु जन्मे थे. 


    

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
फलीस्तीनी शहर बेतलहम स्थित चर्च ऑफ़ नेटिविटी

नया नियम (न्यू टेस्टामेंट ) के सुसमाचारों के स्रोत और यीशु के चेलों के अनुसार भी,यीशु के माता-पिता नाज़रत निवासी थे,जो अपना नाम दर्ज़ कराने बेतलहम गए थे;लेकिन यीशु के जन्म के बाद वो भागकर मिस्र चले गए और राजा हेरोड की मृत्यु के बाद फ़िर वापस नाज़रत आकर रहने लगे.


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
यीशु का पवित्र जन्मस्थान 


इसके ठीक उलट एक तबक़ा ऐसा भी है जो इस धारणा का खंडन करता है और ये मानता है कि यीशु का जन्म बेतलहम में नहीं बल्कि बेतलहम एप्राता में हुआ था.देखिये,अब यहाँ एक दूसरे बेतलहम का ज़िक़्र आ जाता है जो नाज़रत के पास वाले बेतलहम से अलग़ है और जिसका नाम बेतलहम एप्राता है.उनके अनुसार,भविष्यवक्ता मीक़ा (उत्पत्ति की क़िताब-35:19 ) ने भविष्यवाणी की थी कि यीशु का जन्म बेतलहम एप्राता में होगा जहाँ राहेल की क़ब्र है,इसलिए बेतलहम एप्राता ही यीशु का वास्तविक जन्मस्थान मानने योग्य है.

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
चर्च के निचे स्थित गुफ़ा में गर्भगृह के दर्शन को जाते श्रद्धालु

 

3. यीशु का पुनरुत्थान (फ़िर से जी उठना ):  

ईसाई मिशनरियां जब मसीही धर्म का प्रचार करती हैं तो उनके पास एक बड़ी दलील ये होती है कि ईसा मसीह जिसे सूली पर लटका दिया गया था,तीन दिन बाद वो फ़िर से जी उठा था.उनके मुताबिक़ ये सबसे बड़ा सबूत है कि वो गॉड यानि भगवान था,क्योंकि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता.इसका सबूत देने के लिए वो बाइबल पेश करते हैं.ऐसे में हमें बाइबल को देखना और परखना होगा कि इस दलील में कितनी सच्चाई है या फ़िर कितना झूठ समाहित है.लेकिन इससे पहले हमें बाइबल के उन गॉस्पेल यानि सुसमाचारों (जिनमें यीशु के फ़िर से ज़िंदा होने की चर्चा है ) को देखना होगा कि वास्तव में वो क्या हैं.साथ ही,इसे समझने के लिए ये जानना भी ज़रूरी है कि आज दुनिया में जितने भी ईसाई हैं उनमें आधे तो रोमन कैथलिक हैं और ज़्यादा प्रभावशाली हैं जबकि 50 से भी ज़्यादा अलग़-अलग़ मत हैं.आइये हम इसे ग्राफ़ की सहायता से समझने का प्रयत्न करते हैं. 

       

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
दुनियाभर में फ़ैले विभिन्न ईसाई मतावलंबियों की संख्या (प्रतिशत में ) दर्शाता ग्राफ़-चित्र 

हम यहाँ देखते हैं कि 50 फ़ीसदी रोमन कैथलिक हैं और बाक़ी अलग़-अलग़ मत हैं.मग़र इसे व्यावहारिक तौर पर देखें तो पता चलता है कि बाक़ी अन्य सभी मतावलंबियों में प्रोटेस्टैंट सबसे ज़्यादा हैं लेकिन,इन सबको यदि एक साथ मिला भी दें तो भी ये रोमन कैथलिक ईसाईयों से कमतर ही दिखाई देते हैं.साथ ही,रोमन कैथलिक ईसाइयत वेटिकन से या फ़िर पोप से चलती है जिनका कहना है-”Old Testament And New Testament Have God As Their Author”-Vatican
                    ”पुराना नियम और नया नियम का लेखक गॉड स्वयं है ”-वैटिकन

इसका मतलब ये है कि जो पुराना नियम और नया नियम हैं उन्हें स्वयं ईश्वर ने लिखे हैं इसलिए उनमें कोई त्रुटि,कोई ग़लती अथवा कुछ भी झूठा नहीं है.इसके अलावा बाक़ी जो दूसरे हैं वो सीधा ऐसा नहीं कहते कि लेखक गॉड स्वयं है  लेकिन वो कहते हैं- गॉड की प्रेरणा से लिखा गया है  यानि ईश्वर के प्रेरितों द्वारा लिखे गए हैं.मत्लब ये है कि ईश्वर ने स्वयं नहीं लिखा बल्कि उसकी प्रेरणा से यीशु के शिष्यों द्वारा लिखा गया है जिसमें ग़लती की कोई गुंज़ाइश नहीं है.वैसे भी अंग्रेजी भाषा में गॉस्पेल अथवा गॉस्पेल ट्रूथ का मत्लब यथार्थ सत्य अथवा अकाट्य सत्य होता है.
इस तरह,गॉस्पेल अथवा सुसमाचारों को हम ऐसे समझ सकते हैं कि सारे के सारे गॉस्पेल इतने सच्चे है कि जैसे सच की कसौटी हैं.ऐसे में अब हमे ये देखना है कि यीशु के सूली पर लटकाए जाने के तीन दिन बाद उनके फ़िर से जीवित हो जाने के बारे में विभिन्न सुसमाचारों में क्या वर्णन है.मत्ती,मरकुस,लुका और यूहन्ना के सुसमाचारों में उपरोक्त घटना की चर्चा का अध्ययन तथा विश्लेषण हमें करना है.             

यूहन्ना का सुसमाचार :

सबसे पहले हम यूहन्ना का सुसमाचार देखते हैं.यूहन्ना यहाँ कहता है-” सप्ताह के पहले दिन अलख सुबह अँधेरा रहते मरियम मगदलिनी क़ब्र पर आयी.और उसने देखा कि क़ब्र से पत्थर हटा हुआ है.तब वह दौड़ी-दौड़ी शमौन पतरस और उस चेले के पास गई जिससे यीशु को बहुत प्यार था,और उनसे कहा,” वे प्रभु को क़ब्र से निकाल कर ले गए हैं.और हमें नहीं पता कि उन्होंने उसे कहाँ रखा है.तब पतरस और दूसरा चेला क़ब्र की तरफ़ चल दिए.वे दोनों साथ-साथ भागने लगे,मगर दूसरा चेला पतरस से तेज़ दौड़ा और क़ब्र पर पहले पहुँच गया.उसने झुककर क़ब्र में झाँका तो उसे मलमल के कपड़े दिखाई दिए.मगर वह अंदर नहीं गया.तब शमौन पतरस भी उसके पीछे-पीछे आ पहुंचा और क़ब्र के अंदर घुस गया.उसने वहां मलमल के कपड़े पड़े हुए देखे.”   

        

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यूहन्ना का सुसमाचार : मरियम मगदलिनी,यीशु की लाश उसके चेले और कपड़ों की चर्चा  


इसप्रकार,यहाँ यूहन्ना के सुसमाचार से पता चलता है कि जब मरियम मगदलिनी क़ब्र पर पहुँचती है तो यीशु की लाश वहां नहीं है मगर उसके कपड़े पड़े हुए हैं,जिसके बारे में वर्णन हैं. 

 

मत्ती का सुसमाचार : 

अब उपरोक्त विवरण के मद्देनज़र मत्ती के सुसमाचार में देखते है कि वह क्या कहता है.मत्ती कहता है-”सब्त के बाद,हफ़्ते के पहले दिन पौ फटते ही मरियम मगदलिनी और दूसरी मरियम क़ब्र को देखने आयीं.कुछ समय पहले एक भारी भूकंप आया था क्योंकि यहोवा का दूत स्वर्ग से उतरा था.उसने क़ब्र के मुँह पर रखा पत्थर लुढ़का दिया था और उसपर बैठा हुआ था.उसका रूप बिजली जैसा था और उसके कपड़े बर्फ़ जैसे सफ़ेद थे.पहरेदार इतने डर गए थे कि वे कांपने लगे और मुर्दे जैसे हो गए.मग़र जब ये औरतें क़ब्र पर आयीं तो स्वर्गदूत ने उनसे कहा,”डरो मत.तुम यीशु को ढूंढ़ रही हो ना,जिसे काठ पर लटकाकर मार डाला गया था?वह यहाँ नहीं है,उसे ज़िंदा कर दिया गया है.” 

            

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मत्ती का सुसमाचार: दो स्त्रियां,स्वर्गदूत और पहरेदार का ज़िक़्र 


अब यहाँ मत्ती कुछ अलग़ ही कहानी कह रहा है.इसका वर्णन यूहन्ना के वर्णन से काफ़ी अलग़ है और यहाँ चार मुख्य बिंदु बिल्कुल स्पष्ट नज़र आते हैं.पहला,यूहन्ना बता रहा है कि सिर्फ़ मरियम मगदलिनी क़ब्र पर गई थी जबकि मत्ती ने एक दूसरी औरत जोड़ दी है.उसके मुताबिक़ मरियम मगदलिनी के साथ एक दूसरी मरियम भी थी.

 

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गुफ़ा के द्वार पर मरियम मगदलिनी के साथ दूसरी मरियम 

दूसरा बिंदु ये है कि यूहन्ना किसी स्वर्गदूत की बात नहीं कर रहा है लेकिन मत्ती में स्वर्गदूत आ जाता है.इतना बड़ा फ़र्क़ कैसे संभव है? यदि स्वर्गदूत रोज़ प्रकट होते रहते हैं,रोज़ उनका आना-जाना लगा रहता है तो ये छोटी-मोटी घटना होगी और इसे भूल सकते हैं.मग़र यदि ऐसा नहीं है तो क्यों यूहन्ना उसे बताना भूल गया जबकि मत्ती बता रहा है.तीसरा बिंदु है भूचाल का आना.यूहन्ना को भूचाल महसूस नहीं होता लेकिन मत्ती बता रहा है कि भूचाल आया था.अब भूचाल भी क्या रोज़ आते हैं जिसे सामान्य बात समझकर यूहन्ना भूल गया?       
चौथा बिंदु ये है कि यूहन्ना वाले वर्णन में किसी पहरेदार का ज़िक्र नहीं मिलता लेकिन मत्ती बता रहा है कि वहां पहरेदार है जो डर के मारे थर-थर काँप रहे हैं और ऐसा लगता है जैसे वो मर गए हों.ये जो अंतर है, इससे क्या पता चलता है? इससे ये पता चलता है कि अलग़-अलग़ लोगों द्वारा अलग़-अलग़ समय में कहानियां गढ़ी गईं और फ़िर उन्हें जोड़कर सुसमाचार का नाम दे दिया गया;जिसकी,मसीही लोग मार्केटिंग कर रहे हैं.     

 

मरकुस का सुसमाचार :

अब आगे,मरकुस का सुसमाचार लेते हैं और देखते है कि इसमें वह क्या कहता है.मरकुस कहता है-”जब सब्त का दिन बीत गया,मरियम मगदलिनी,याक़ूब की माँ मरियम और सलोमी ने खुशबूदार मसाले ख़रीदे ताकि आकर यीशु के शरीर पर लगाएं. वे हफ़्ते के पहले दिन सुबह-सुबह जब सूरज निकला ही था,क़ब्र पर आयीं.वे कह रही थीं,”कौन हमारे लिए क़ब्र के मुँह से पत्थर हटाएगा?” मगर उन्होंने जब नज़र उठाकर देखा,तो पत्थर पहले से ही लुढ़का हुआ था,इसके बावज़ूद कि वह बहुत बड़ा था.जब वे क़ब्र के अंदर गयीं,तो उन्होंने देखा कि एक नौजवान सफ़ेद चोगा पहने दायीं ओर बैठा हैं और वे हैरान रह गयीं.उसने उनसे कहा,”हैरान मत हो.तुम यीशु नासरी को ढूढ़ रही हो न,जिसे काठ पर लटकाकर मार डाला गया था ? उसे ज़िंदा कर दिया गया है,और वह यहाँ नहीं है.यह जगह देखो जहाँ उसे रखा गया था.जाओ और जाकर पतरस और बाक़ी चेलों से कहो,’वह तुमसे पहले गलील को जायेगा.” 


            

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
मरकुस का सुसमाचार : तीन स्त्रियां,गुफ़ा के द्वार का पत्थर और एक नौजवान का वर्णन  

हमने देखा कि मरकुस के सुसमाचार में एकदम से एक नई कहानी आ जाती है जो पिछले दोनों से मेल  नहीं खाती.यहाँ पर सलोमी नामक एक तीसरी औरत प्रकट हो जाती है जो पहले कहीं भी नज़र नहीं आती.यूहन्ना की अकेली मरियम मगदलिनी को मत्ती में आते-आते दूसरी मरियम का साथ मिल जाता है और फ़िर मरकुस में तो इनकी संख्या बढ़कर तीन हो जाती है.वहां एक में पत्थर की कोई बात नहीं थी तो दूसरे में पत्थर को स्वर्गदूत ने लुढ़काया था और अब यहाँ पत्थर पहले से लुढ़का हुआ है.वहां पर कोई युवक नहीं था और यहाँ एक युवक आकर बैठा हुआ है. 
      

लूका का सुसमाचार :


यीशु का एक और चेला लूका भी अपने सुसमाचार में क़ब्र से उसके फ़िर से ज़िंदा होने की बात बताता है.इसमें लूका कहता है-” हफ़्ते के पहले दिन,वे औरतें तैयार किये गए ख़ुशबूदार मसाले लेकर क़ब्र पर आयीं.मगर उन्होंने देखा कि क़ब्र के मुँह पर रखा गया पत्थर दूर लुढ़का हुआ है.अंदर जाने पर उन्हें वहां प्रभु यीशु की लाश नहीं मिली.जब वे इस बात को लेकर बड़ी उलझन में थीं,तभी अचानक उनके पास दो आदमी आ खड़े हुए,जिनके कपड़े तेज़ चमक रहे थे.वे औरतें डर गयीं और अपना सिर नीचे झुकाये रहीं.तब उन आदमियों ने कहा,” जो ज़िंदा है,उसे तुम मरे हुओं के बीच क्यों ढूंढ़ रही हो? वह यहाँ नहीं है बल्कि उसे ज़िंदा कर दिया गया है.”   

      

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
लूका का सुसमाचार : गुफ़ा के द्वार के पत्थर और दो अज़नबियों की चर्चा 


अब यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि लूका ‘वे औरतें’ लिखकर किन औरतों की बात कर रहा है तथा कितनी औरतों की बात कर रहा है ये स्पष्ट नहीं है.दूसरे, वहां एक नौजवान था जो बैठा था जबकि यहाँ दो व्यक्ति चमचमाते हुए कपड़े पहनकर आते हैं और फ़िर बातें होती हैं.विडंबना देखिये कि चार चेले, चार सुसमाचार और एक यीशु के फ़िर से जी उठने का प्रसंग कितना उलझा हुआ और परस्पर विरोधी है! उसमें भी चर्चा के केंद्र में वे किताबें हैं जो आम किताबें नहीं हैं.वो या तो स्वयं ईश्वर द्वारा लिखी गई हैं या फ़िर उसकी प्रेरणा से लिखी गई हैं फ़िर भी, इतनी सारी ग़लतियाँ हैं कि कभी विश्वास नहीं किया जा सकता कि वो एक ही घटना अथवा कहानी के बारे में बता रही हैं.
      

यीशु से जुड़ी कई अन्य घटनाएं भी विवादों से घिरी हैं :

यीशु के जीवन-दर्शन से जुड़ी कई अन्य बातें भी हैं,कई सवाल हैं जो बाइबल को कठघरे में खड़ा करते हैं और जिनका जवाब नहीं मिलता.मसलन,यीशु जब 12 वर्ष के हुए तो येरुशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से धार्मिक-चर्चा करते रहे.13 वर्ष की उम्र में वो कहाँ चले गए ये कोई नहीं जानता.13 से 29 साल की उम्र के बीच वो कहाँ रहे तथा क्या किया, ये अज्ञात है.33 वर्ष की उम्र में उन्हें सूली पर टांग दिया गया लेकिन तीन दिन बाद यदि वो फ़िर से जीवित हो गए तो फ़िर ग़ायब क्यों हो गए, ये प्रश्न संशय में डालता है.क्योंकि उनका जन्म ईश्वर की योजनानुसार प्राणिमात्र की सेवा व रक्षा के लिए हुआ था तो उन्हें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए था बिल्कुल उसी तरह जैसे उन्होंने शैतान के सामने दृढ़ता का परिचय दिया था.लेकिन ऐसा नहीं हुआ इसलिए, ये कहा जा सकता है कि उनका जन्म ही नहीं बल्कि उनकी तथाकथित शहादत भी बेकार चली गई.सबसे बड़े विवाद का विषय तो ये है कि दुनिया की रक्षा करने आया परमेश्वर-पुत्र अथवा परमेश्वर (ईसाई उन्हें परमेश्वर भी बताते हैं) स्वयं की रक्षा नहीं कर सका और दर्दनाक एवं अपमानजनक मृत्यु को प्राप्त हुआ. 


          

धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
येरुशलम स्थित मंदिर के पुजारियों से धार्मिक-चर्चा करते हुए 12 वर्षीय यीशु

कुछ मनोवैज्ञानिक एवं तर्कशास्त्री संदेह व्यक्त करते हैं तथा कहते हैं कि वास्तव में संसार में यदि यीशु नामक कोई व्यक्ति अस्तित्व में था तो अवश्य ही वह एक दोहरे अथवा खंडित व्यक्तित्व (Split Personality) का मनुष्य रहा होगा.उनका कहना है कि यीशु को जब सूली पर लटकाया जा रह था तो वो  दर्द से कराहते हुए और ज़ोर से पुकारकर बोला-  46 “एली, एली, लमा शबक्तनी।” अर्थात्, “मेरे परमेश्वर, मेरे परमेश्वर, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मत्ती के अनुसार ).ये दर्शाता है कि तक़लीफ़ की उस अवस्था में यीशु को ये महसूस हो गया था कि वो भ्रम की स्थिति में जी रहा था.तभी उसके साथ सलीबों पर टंगे दो अपराधी भी हैरानी व्यक्त कर रहे थे कि मसीहा भी क्यों पापियों के जैसा ही यातनाएं झेल रहा था.इस दौरान एक अपराधी और यीशु के बीच हुए वार्तालाप का ज़िक्र भी सामने आता है. 


      

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सूली पर टंगे यीशु और एक अपराधी के बीच वार्तालाप का सांकेतिक चित्र

इसप्रकार,उपरोक्त तमाम बिंदुओं और उनके विश्लेषण से ये बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि ईसाइयत और बाइबल की शिक्षा शिक्षितों तथा बुद्धिजीवियों के लिए मायने नहीं रखती.यह उन्हीं लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने का मार्ग है जो अशिक्षित हैं,मज़बूर है या फ़िर जाहिल हैं.इसलिए चाहे जितना भी प्रचार हो अथवा विस्तार ये महज़ एक व्यापार है और अस्तित्व बचाने की क़वायद भी. 


धर्म का प्रचार, बेवक़ूफ़ बनाने की मुहिम, निशाने पर ग़रीब व मज़बूर
परमेश्वर-पुत्र तथा राजाओं का राजा यीशु और पवित्र बाइबल 

 

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